Wednesday 1 August 2018

चे ग्वेरा: एक ज़ुनूनी क्रांतिकारी

चे ग्वेरा: एक ज़ुनूनी क्रांतिकारी
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जन्म: 14 जून 1928
वीरगति: 9 अक्टूबर 1967 ( उम्र 39 वर्ष )
असल नाम अर्नेस्तो "चे" ग्वेरा था. जन्म अर्जेंटीना के रोसारियो नामक स्थान पर हुआ था. पिता थे अर्नेस्टो ग्वेरा लिंच. मां का नाम था—सीलिया दे ला सेरना ये लोसा. बचपन में ही दमा रोग से ग्रसित होने की वज़ह से इस बालक के लिए नियमित रूप से स्कूल जाना संभव नहीं था. घर पर उसकी मां ने उसे प्रारंभिक शिक्षा दी. पिता ने उसको सिखाया कि किस प्रकार दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर शारीरिक दुर्बलता पर विजय पाना संभव है और यह भी कि इरादे मजबूत हों तो कैसे बड़े संकल्प आसानी से साधे जा सकते हैं.Image may contain: 1 person, text

पढ़ाकू बालक
पुस्तकें पढ़ने की रूचि इस बालक में किशोरावस्था से ही बलवती थी.14 वर्ष की उम्र तक उसने सिगमंड फ्रायड, एलेग्जेंडर ड्यूमा, रॉबर्ट फ्रॉस्ट, जूलियस बर्ने आदि की पुस्तकें पढ़ ली थीं. एडवेंचर से संबंधित साहित्य पढ़ने में उसको विशेष आनंद की अनुभूति होती थी. उसने रूसो, कार्ल मार्क्स, पाब्लो नेरुदा, फ्रेड्रिको गार्सिया, अनातोले फ्रांस व अन्य कई क्रांतिकारी लेखकों की रचनाएं पढ़ ली थीं. उसकी बौद्धिक समृद्धि का स्रोत यही था.
क्रांतिकारी विचारधारा से ओतप्रोत परिवार में अर्नेस्टो को बचपन से ही गरीबों के प्रति हमदर्दी का संस्कार मिला. तीन चीजें मानो उसे उपहार में प्राप्त हुईं. पहली उसका उग्र, जिद्दी और चंचल स्वभाव, दूसरा दमे का रोग और तीसरी उत्कट जिजीविषा. मां सीलिया स्त्री-स्वातंत्र्य और समाजवादी विचारधारा की समर्थक थी. अर्नेस्टो ने पिता से विद्रोही स्वर लिया और मां से समाजवादी, स्त्री-स्वातंत्र्यवादी प्रेरणाएं. मौत से संघर्ष की प्रेरणा उसको अपनी ही जिंदगी से मिली थी. लगभग हर रोज दमे का दौरा, हर रोज मौत की ललकार सुनना, अपने जीवट के दम पर मौत को पछाड़ना. लगता है कि छापामार युद्ध का प्रारंभिक प्रशिक्षण उसको मौत से मिला.
चे डॉक्टर टर्न्ड रेवोल्यूशनरी थे। एक ज़ुनूनी क्रांतिकारी, गुरिल्ला नेता, लेखक और कूटनीतिज्ञ थे.
विश्व के जिन गिने-चुने देशों में साम्यवाद आज भी अपनी मजबूत पकड़ बनाए हुए है, उनमें चीन, लाओस, वियतनाम, उत्तरी कोरिया के अलावा क्यूबा का नाम आता है. 26 जुलाई 1953 से दिसंबर 1956 तक चली क्यूबा जनक्रांति ने तानाशाह सम्राट फल्जेंसियो बतिस्ता को पदच्युत कर, फिदेल कास्त्रो के नेतृत्व में जनवादी सरकार स्थापित करने में सफलता प्राप्त की थी. उसके बाद ही 1961 में वह एक साम्यवादी देश बन सका. क्यूबा क्रांति में फिदेल ने एक वीर और दूरदर्शी सेनापति की भूमिका निभाई थी. लेकिन क्यूबा समेत पूरे लातीनी अमेरिकी देशों में जनक्रांति का वातावरण तैयार करने, सेनापति कास्त्रो के कंधे से कंधा मिलाकर अग्रणी भूमिका निभाने, बाद में आमजन की अपेक्षा के अनुरूप परिवर्तनों को गति देने का जो अनूठा कार्य अर्नेस्तो चे ग्वेरा ने किया, उसका उदाहरण दुर्लभ है.
अर्जेंटीना में जन्मे क्यूबा के क्रांतिकारी नेता चे ग्वेरा एक प्रतीक थे व्यवस्था के खिलाफ युवाओं के गुस्से का और आदर्शों की लड़ाई का . एक महान क्रांतिकारी के रूप में जो स्थान सरदार भगतसिंह का भारत और भारतीय उपमहाद्वीप में है ,वही स्थान चेग्वेरा का लैटिन अमेरिका सहित कई देशों में है.
यात्राओं से बदला जीवन
ग्वेरा की असल ज़िंदगी वहां से शुरू होती है जब उन्होंने अपने दोस्त, अल्बेर्तो ग्रेनादो के साथ दक्षिण अमेरिका को जानने के लिए तकरीबन दस हज़ार किलोमीटर की यात्रा की. तब उनकी उम्र तकरीबन 23 साल थी. मोटरसाइकल पर की गई यही यात्रा उनकी जिंदगी का वह महत्वपूर्ण पड़ाव थी जिसने उन्हें हमेशा के लिए बदल दिया. इस दौरान उन्होंने दक्षिण अमेरिका के लोगों को जीने के लिए विषम परिस्थितियों से जूझते हुए देखा. उन्होंने देखा कि कैसे पूंजीवाद ने लोगों को अपने अस्तित्व से अलग कर दिया था. कैसे खदानों में काम करने वाले मजदूरों का शोषण किया जा रहा था.
लैटिन अमेरिका की यात्रा के दौरान अर्नेस्टो का भूख, गरीबी, बेरोजगारी और बीमारी से सीधा साक्षात हुआ. यात्रा में उसने गरीबी का ऐसा रूद्र रूप देखा कि उसे अपना डॉक्टर होना निरर्थक लगने लगा.
अर्नेस्टो के जीवन में यात्रा बहुत परिवर्तनकारी सिद्ध हुई. उससे पहले तक वह शहरी जीवन में पला-बढ़ा था. गांव और गरीबी उसने देखी नहीं थी. मोटरसाइकिल की यात्रा से वह ग्रामीण जीवन की असलियत से रूबरू हुआ. उसने देखा कि किस तरह ग्रामीण मजदूरों के परिश्रम से बड़े भूमिपति उत्तरोत्तर धनवान एवं शक्तिशाली बनते जा रहे हैं. यह भी देखा कि लातिनी अमेरिका दो भागों में बंटा हुआ है. एक छोर पर संपत्ति और संसाधनों पर कब्जा जमाए यूरोपीय मूल के जमीदार, उद्योगपति, सरमायेदार, और व्यापारी हैं. दूसरी तरफ मूल लातिनी मजदूरों के वंशज हैं, जिन्हें दिन-रात परिश्रम करने पर भी भरपेट भोजन नहीं मिल पाता. पहली बार उसने समाज का उत्पीड़क और उत्पीड़ित में साफ-साफ विभाजन देखा . मार्क्स की कही बातें अब उसे समझ में आ चुकी थीं. इसी बीच उसने रूसी क्रांति का भी अध्ययन किया.
यात्रा के दौरान अर्नेस्टो ने देखा कि मजदूर माता- पिता अपनी बीमार संतान को मरते- तड़पते देखने को सिर्फ इस कारण विवश हैं क्योंकि उनके पास डॉक्टर की फीस चुकाने और इलाज के लिए पैसे नहीं हैं. अभावग्रस्तता को उन्होंने अपनी नियति, जिंदगी का स्वाभाविक हिस्सा मान लिया है. क्या डॉक्टर के रूप में वह उनकी कुछ मदद कर सकता है? श्रमिक परिवारों के दुर्दशा देख अर्नेस्टो अपने आप से प्रश्न करता. उसका अंतर्मन तत्काल उसे उत्तर देता कि-- 'नहीं, इनकी समस्या केवल रोगों का उपचार कर देने से दूर होने वाली नहीं है. वास्तविक समस्या इनके उत्पीड़न में छुपी है. रोग का वास्तविक कारण उनकी गरीबी और वह भयावह आर्थिक असमानता है जो अमेरिकी साम्राज्यवाद के कारण जन्मी है . यह जानकर वह क्षुब्ध था कि अपनी जमीन, अपना देश होने के बावजूद वहां अमेरिकी कंपनियों शासन और प्रशासन पर हावी हैं. कमरतोड़ मेहनत करने के बावजूद उन्हें पेट -भर भोजन नसीब नहीं होता. सरकार भी उत्पीड़न में विदेशी कंपनियों का साथ देती है. यह यात्रा डॉक्टर अर्नेस्टो के "क्रांतिकारी चे ग्वेरा" में बदलने की यात्रा थी.
लैटिन अमेरिका की यात्रा के दौरान अर्नेस्तो गेवारा की आंखों ने जो देखा वो दिल पर गहरा प्रहार करने लगा. वह जान चुका था कि लैटिन अमेरिका के हालात सिर्फ़ और सिर्फ़ गरीबी के कारण बिगड़े हैं. साम्राज्यवाद और पूंजीवाद ने जिस तरह से पूरे महाद्विप को जकड़ रखा है उससे मुक्ति का एक ही तरीका है क्रांति... विश्व क्रांति...
ग्वेरा ने इस पूरे वृतांत को ‘मोटरसाइकिल डायरीज’ नाम से संस्मरण में कलमबद्ध किया है. इसके अंत में उन्होंने ग़रीब और हाशिये पर धकेले जा चुके लोगों के लिए जीवनभर लड़ने की कसम भी उठाई थी.
1953 में ग्वेरा अपने शहर ब्यूनस आयर्स लौट आए. अप्रेल 1953 में उसकी डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी हो गई और वह डॉ एर्नेस्तो ग्वेरा बन गया. लेकिन उनका इरादा डॉक्टरी का पेशा अपनाने का नहीं था. वे पहले ही दुनिया और समाज को बदलने की कसम खा चुके थे. इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए उन्हें एक बड़ी जंग लड़नी थी. यह जंग पूंजीवाद के ख़िलाफ़ थी जो अमेरिकी समाज का आधार था.
ग्वेरा जिस व्यवस्था के प्रशंसक थे, कुछ-कुछ वैसी ही व्यवस्था पड़ोसी देश ग्वाटेमाला में तैयार हो रही थी. उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद निश्चय किया कि वे वहां जाकर इस व्यवस्था को करीब से देखेंगे. ग्वाटेमाला में तब समाजवादी सरकार हुआ करती थी और जहां राष्ट्रपति जैकब अर्बेंज गुजमान बड़े पैमाने पर भूमि सुधार कार्यक्रम लागू कर रहे थे. इन कार्यक्रमों का शिकार अमेरिका की एक बड़ी कंपनी – यूनाइटेड फ्रूट कंपनी भी हुई जिसके पास वहां लाखों एकड़ जमीन थी. इन कार्यक्रमों से अमेरिका के और भी कारोबारी हित प्रभावित हो रहे थे तो आखिरकार अमेरिकी सरकार ने यहां गुजमान सरकार का तख्ता पलट करवा दिया. ग्वेरा उस समय ग्वाटेमाला में ही थे और गुजमान का समर्थन कर रहे थे. लेकिन तख्तापलट के बाद वे मैक्सिको आ गए.
फिदेल कास्त्रो से मुलाकात
ग्वाटेमाला में सरकार के तख्तापलट ने ग्वेरा के मन में क्रांति की आग और अमेरिका विरोध को और अधिक भड़का दिया. लेकिन वे तुरंत कुछ करने की स्थिति में नहीं थे इसलिए मैक्सिको पहुंचकर उन्होंने वहाँ एक अस्पताल में डॉक्टर की नौकरी जॉइन कर ली . इसी दौरान उनकी मुलाकात क्यूबा से निर्वासित नेता फिदेल कास्त्रो और उनके भाई राउल कास्त्रो से हुई. चे की उम्र उस समय 27 साल की थी. इस मुलाकात के बाद ग्वेरा के लिए आगे का रास्ता बिलकुल स्पष्ट हो गया था. उन्होंने तय कर लिया था कि अब उनका लक्ष्य क्यूबा की अमेरिका समर्थित तानाशाही सरकार को हटाना है. इसके बाद वे फिदेल के साथ क्यूबा की क्रांति के अगुवा नेता बन गए. डॉक्टर से क्रांतिकारी बने चे ग्वेरा क्यूबा की क्रांति के नायक फिदेल कास्त्रो के सबसे भरोसेमंद साथियों में से एक थे. फिदेल व चे ने सिर्फ 100 गोरिल्ला लड़ाकों के साथ मिलकर अमेरिका समर्थित तानाशाह बतिस्ता की सत्ता को सन 1959 में उखाड़ फेंका था.
क्यूबा की क्रांति के दौरान ग्वेरा की दिलेरी ने क्रांतिकारियों के ज़ेहन पर गहरी छाप छोड़ी थी. इसी संघर्ष ने उन्हें एर्नेस्तो ग्वेरा से चे ग्वेरा बना दिया. स्पेनिश में चे का मतलब होता है- दोस्त , भाई, सखा आदि. उसके चाहने वाले उसको केवल ‘चे’ नाम से पुकारते थे. अपनापन जताने के लिए बोले जाने वाले इस नन्हे से शब्द का अर्थ है—‘हमारा’, 'हमारा अपना'. अत्यंत घनिष्टता और आत्मीयता से भरा है यह संबोधन. अपने साथियों में चे इसी नाम से ख्यात था.
31 वर्ष की उम्र में चे को फिदेल ने राष्ट्रीय बैंक का अध्यक्ष और देश का उद्योग मंत्री बना दिया, लेकिन वो राजधानी में बैठकर काम नहीं करना चाहता था. स्वभाव से क्रांतिकारी होने के कारण वह दूसरे देशों में ज़मीनी स्तर पर जाकर पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ़ आंदोलन को और मजबूत करने का काम करने लगा.
समाजार्थिक सुधार
चे ने क्यूबा में समाजार्थिक सुधारों की शुरुआत की, जो क्रांति का वास्तविक लक्ष्य था. क्यूबा की सत्ता पर काबिज़ होने के उसने सामाजिक न्याय कायम करने को प्राथमिकता प्रदान करते हुए 17 मई 1959 को चे ने कृषि सुधार नियम’ लागू किया, जिसमें समस्त कृषि भूमि को बड़े कृषि फार्मों में बांटने का आदेश जारी किया गया था. प्रत्येक कृषिफार्म का क्षेत्रफल 1000 एकड़, लगभग 4 वर्ग किलोमीटर था. जिसके पास भी इससे अधिक कृषिभूमि थी, उसका अधिग्रहण कर उसको लगभग 67 एकड़ के कृषि भूखंडों में बांट दिया गया था. एक और कानून यह भी बनाया कि चीनी ( Sugar ) के लिए की जाने वाली खेती में विदेशियों की भागीदारी पर प्रतिबंध लगाया गया. आर्थिक विषमता के उन्मूलन के लिए चे द्वारा उठाए गए कदमों का आम जनता ने खुलकर स्वागत किया.
चे का समाजवादी राज्य का सपना केवल क्यूबा तक सीमित नहीं था. वह पूरे लातीनी अमेरिका के साथ बाकी विश्व को भी साम्राज्यवादी अमेरिका की कुटिल चालों से दूर रखना चाहता था. 12 जून, 1959 को वह तीन महीने की विदेश यात्रा के लिए रवाना हुआ. इस बार उसका पड़ाव मोरेक्को, सुडान, सीरिया, यूनान, पाकिस्तान, थाइलेंड, यूगोस्लाविया, ग्रीक, जापान आदि देश बने. यात्रा से पहले उसको विदा करने फिदेल कास्त्रो स्वयं हवाई अड्डे पर पहुंचे।
सितंबर, 1959 में चे को क्यूबा वापस लौटना पड़ा. फिदेल के नेतृत्व में क्यूबा की सरकार भूमि सुधारों को तेजी से लागू करने का प्रयास कर रही थी. चे को सूचना मिली कि नई भू-अधिग्रहण नीति से नाराज होकर जमींदार भू-वितरण की प्रक्रिया का विरोध कर रहे हैं. विद्रोहियों को पड़ोस के गैर साम्यवादी देशों सहित अमेरिका का भी समर्थन प्राप्त था. कास्त्रो ने विरोधियों को कुचलने तथा भूमि-सुधारों को सख्ती से लागू करने का दायित्व चे को सौंप दिया. कानून के क्रियान्वयन के लिए ‘राष्ट्रीय भूमि सुधार संस्था’ का गठन किया गया. चे उसका प्रमुख कर्ता-धर्ता मनोनीत हुआ. उसको उद्योगमंत्री का पद दिया गया. विद्रोही जमींदारों के दमन तथा भूमि सुधार कार्यक्रम को गति देने के लिए चे ने एक नए सैन्य दल का गठन किया. परिवर्तन के लिए उत्साही युवा तेजी से उस दल में भर्ती होने लगे. बहुत जल्दी उसके सैनिकों की संख्या एक लाख तक पहुंच गई. ‘राष्ट्रीय भूमि सुधार दल’ के सैनिकों से पहले तो उपद्रवी नेताओं, जमींदारों को सख्ती से कुचलने का काम लिया गया. फिर उन्हें जरूरतमंदों के बीच भूमि के बंटवारे का काम भी सौंप दिया गया. क्यूबा में हजारों हेक्टेयर कृषि-भूमि पर अमेरिका की पूंजीवादी कंपनियों का अधिकार था. उनके कब्जे से 4,80,000 एकड़ भूमि मुक्त कराई गई. इससे नाराज होकर अमेरिका ने क्यूबा से चीनी आयात पर प्रतिबंध लगा दिया. चीनी उद्योग क्यूबाई अर्थव्यवस्था की रीढ़ था. अमेरिका को विश्वास था कि इस कदम से क्यूबा सरकार का हौसला पस्त हो जाएगा. लेकिन चे जैसे जनक्रांति से उभरे नेता ने अमेरिकी धौंसपट्टी का डटकर मुकाबला किया .
क्यूबा के पुनर्निर्माण के लिए चे एक ओर तो भूमि-सुधार के क्षेत्र में मजबूत पहल कर रहा था, दूसरा मोर्चा उसने शिक्षा के क्षेत्र को बनाया हुआ था. शिक्षकों की कमी और सरकारी उदासीनता के चलते किसानों और मजदूरों का बड़ा वर्ग अशिक्षित था. जिसके अभाव में अमेरिकी कंपनियां उनका आर्थिक शोषण करती थीं. शिक्षा की महत्ता को समझते हुए चे ने उसके प्रसार के लिए 1961 को शिक्षा-वर्ष घोषित किया. अपने कार्यक्रम को विस्तार देते हुए उसने एक लाख स्वयंसेवकों के साथ ‘साक्षरता दल’ का गठन किया. इस दल के सदस्यों को नए स्कूल भवनों के निर्माण तथा प्रशिक्षित शिक्षक तैयार करने का दायित्व सौंपा गया. इसके अलावा ‘साक्षरता दल’ के सदस्य आदिवासी किसानों को पढ़ाने-लिखाने की जिम्मेदारी भी उठाते थे. आर्थिक सुधार कार्यक्रमों की तरह ही चे ग्वेरा के ‘क्यूबाई साक्षरता अभियान’ को भी अप्रत्याशित सफलता मिली. इस अभियान के अंतर्गत 7,07,212 प्रौढ़ों को साक्षर बनाने के साथ ही साक्षरता अनुपात को 96 प्रतिशत पहुंचा दिया गया. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति लाने का काम भी चे ने किया. शिक्षा को जनोन्मुखी बनाने के लिए उसने सभी विश्वविद्यालयों से सकारात्मक सोच अपनाने का आवाह्न किया. ‘यूनीवर्सिटी आॅफ लास विलाज’ में जमा हुए क्यूबा के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों के शिक्षाशास्त्रियों, कुलपतियों को संबोधित करते हुए उसने कहा कि अभी कुछ दिन पहले तक शिक्षा पर सफेदपोश अभिजन का वर्चस्व था. समय आ चुका है, अब हमें अपनी शिक्षानीति बदलनी होगी—
‘हमारी अगली चुनौती धूल-धूसरित किसानों, मजदूरों, कामगारों को शिक्षित करना है. यदि हम इस काम में चूक करते हैं तो कुपित जनता आपके दरवाजे तोड़कर भीतर चली आएगी और आपके विश्वविद्यालयों को ऐसे रंग से रंग देगी, जैसा वह पसंद करती है.’
सबसे न्यारा क्रांतियौद्धा
चे के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता उसके निजी सुख, वैभव-विलास से कहीं बढ़कर थी. वह कार्ल मार्क्स की इस अवधारणा का समर्थक था कि मजदूर का कोई देश नहीं होता और समाजवाद की सफलता किसी एक राष्ट्र की सीमा में बंधे हुए संभव नहीं है. इसलिए क्यूबा में कामयाबी के बाद भी उसने सत्ता से अपनी निलिप्र्तिता को बनाए रखा. वह स्वयं को एक छापामार योद्धा या अधिक से अधिक छापामार दल का सेनापति मानता था. इसलिए जब भी उसको अवसर मिला, औपनिवेशिक शोषण के शिकार रहे देशों में समाजवाद की स्थापना के लिए प्रयास करता रहा. 1965 में वह कांगो की यात्रा पर निकल गया. उसको लगता था कि अफ्रीका की कमजोर राजसत्ता के चलते वहां क्रांति की नई इबारत लिख पाना संभव है. उसका इरादा विरोधियों को छापामार युद्ध का प्रशिक्षण देकर वहां क्रांति का शंखनाद करना था. किंतु अफ्रीका की जलवायु उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकर सिद्ध हुई. वहां पहुंचते ही उसका दमा रोग बिगड़ गया.
क्रांति की संभावनाओं की खोज के लिए चे ने नकली दस्तावेज के आधार पर पूरे यूरोप, उत्तरी अमेरिका आदि देशों की गोपनीय यात्राएं भी कीं. 1966 के आरंभिक महीने चे ने लगभग अज्ञातवास में बिताए. किसी को उसके बारे में कोई जानकारी न थी. हालांकि इस अवधि में वह क्रांति की संभावनाएं तलाश रहे विद्रोहियों से मुलाकातें भी की परंतु वे मुलाकातें सर्वथा गोपनीय थीं.
बोलविया में अंतिम संघर्ष
चे को मानो रोमांच में आनंद आता था. 1966 में उसने अपनी पहचान छिपाने के लिए अपने हुलिया में ही बदलाव कर लिया था. अपनी सदाबहार ढाढ़ी-मूंछ, जिससे वह दुनिया के युवाओं की धड़कन बन चुका था, उसने एक झटके में मुंडवा लिए थे. 3 नवंबर, 1966 को वह छिपते-छिपाते बोलेविया पहुंच गया. यह यात्रा उसने अडोल्फ मेना गोंजलज के नाम से एक व्यापारी के रूप में की थी. उसका इरादा वहां पर एक छापामार दल का गठन करने का था. चे को अपने बीच पाकर बोलेविया के साम्राज्य-विरोधी संगठनों में नई जान आ गई. उनके साथ मिलकर चे ने ‘नेशनल लिबरेशन आर्मी आॅफ दि बोलेविया’ का गठन किया, जिसके सदस्यों की संख्या कुछ ही अवधि में पचास तक पहुंच गई. कुछ ही महीनों में उस संगठन ने गुरिल्ला लड़ाई के लिए आवश्यक सभी हथियार जुटा लिए. बोलेविया के सैन्य टुकड़ियों को कई मोर्चों पर छकाकर चे ने वहां अपनी उपस्थिति दर्ज भी करा दी थी. इससे बोलेविया सरकार सतर्क हो गई. उसने छापामार दल पर काबू पाने के लिए अपनी सेना झोंक दी. अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसी के दल ने बोलेविया के जंगलों में घेरा डाला हुआ था.
बोलेविया में चे को न केवल पराजय का सामना करना पड़ा, बल्कि वह उसके जीवन का अंतिम अभियान भी सिद्ध हुआ. 8 अक्टूबर 1967 को चे को विशेष सैन्यबल ने एक गुप्तचर की ओर से उनके ठिकाने की खबर के आधार पर घेर कर अपने चंगुल में ले लिया।अगले ही सुबह बोलेविया के निरंकुश राष्ट्रपति रेने बेरिनटोस ने चे को मृत्युदंड का आदेश सुना दिया.
मृत्युदंड दिए जाने से कुछ ही क्षण पहले बोलेविया के सैनिक ने उपहास वाले अंदाज में चे से प्रश्न किया था—‘क्या तुम सोचते हो लोग तुम्हें हमेशा याद रखेंगे?’ कठिन से लगने वाले इस प्रश्न का उत्तर चे ने तत्काल दिया—‘नहीं, मैं बस क्रांति की अमरता के बारे में सोचता हूं.’ कुछ देर बाद सार्जेंट टेरेन वहां पहुंचा. उसको देखते ही चे की आंखों में आक्रोश झलकने लगा. वह जोर से चिल्लाया—‘मैं जानता हूं, तू मुझे मारने आया है. गोली चला, कायर!’ उसने बोलेविया के सैनिकों को सुनाते हुए आगे कहा—‘यह समझ लो कि तुम सिर्फ एक आदमी को मारने जा रहे हो, पर उसके विचारों को नहीं मार सकते….क्रांति अमर है.’
चे के उकसाने पर टेरेन नाराज हो गया. उसने अपनी रायफल से तत्काल गोली दाग दी. चे जमीन पर गिर पड़ा. चीख को दबाने के लिए उसने अपने दांत कलाई में गढ़ा दिए. गुस्साया टेरेन ने गुस्से से तमतमा कर चे पर लगातार गोलियां दागता रहा. कुल मिलाकर उसने नौ गोलियां दागीं, जिनमें से पांच उसकी टांगों में, एक कंधे, एक छाती पर लगी. आखिरी गोली जिसने चे का प्राणांत किया, वह उसके गले को चीरती हुई निकली थी. एक विलक्षण छापामार योद्धा, मनुष्यता का परमहितैषी, समाजवादी चे वहीं शहीद हो गया. उसने जो रास्ता चुना था, उसकी अंततः यही परिणति थी. इसका पूर्वानुमान भी उसे था. इसलिए अपने लिए समाधिलेख की परिकल्पना उसने मृत्यु से बहुत पहले कर ली थी. एशियाई, अफ्रीकी एवं लातीनी अमेरिकी देशों की त्रीमहाद्वीपीय बैठक में उसने कहा था—
‘मौत जब भी हमें गले लगाए, उसका स्वागत खुले मन से हो. बशर्ते, हमारा समरघोष उन कानों तक पहुंचे जिन तक हम पहुंचाना चाहते हैं; जबकि हमारा दूसरा हाथ हथियारों को सहला रहा हो.’
चे को मृत्युदंड दिए जाने की सूचना जैसे ही क्यूबा पहुंची वहां शोक की लहर व्याप गई. राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने तीन दिन के शोक की घोषणा कर दी. 18 अक्टूबर को लाखों की भीड़ को संबोधित करते हुए कास्त्रो ने कहा था—
‘यदि कोई हमसे पूछे कि आगामी पीढ़ी के रूप में हम कैसे मनुष्यों की कामना करते हैं, तब हमें निस्संकोच कहना चाहिए: उन्हें चे की भांति होना चाहिए….यदि हमसे कोई पूछे कि हमारे बच्चों की शिक्षा-दीक्षा कैसी हो? इस पर बगैर किसी संकोच के हमें उत्तर देना चाहिए: हम उन्हें खुशी-खुशी चे की भावनाओं से ओत-प्रौत करना चाहेंगे….यदि कोई हमसे प्रश्न करे कि हमारे लिए भविष्य के मनुष्य का मा॓डल क्या हो? तब मैं अपने दिल की गहराइयों से कहना चाहूंगा कि वह एकमात्र आदर्श पुरुष चे है, जिसके न तो चरित्र पर कोई दाग-धब्बा है, न ही कर्म पर….’
चे ने हमेशा एक प्रतिबद्ध जीवन जिया. चुनौतियों का सामना करने, प्रतिकूल स्थितियों में संघर्ष करने तथा डटे रहने की प्रेरणा उसको अपनी मां से मिली थी. शायद वह दमा रोग ही था, जिसने लगातार हमले करके चे को मृत्यु की ओर से भयमुक्त कर दिया.
चे की बहादुरी इंसानियत के लिए थी. वह पूरे लातीनी अमेरिका को अभिन्न मानता था. अर्जेंटाइना में वह जन्मा अवश्य, परंतु साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपने संघर्ष के लिए उसने अपनी पहली कर्मभूमि क्यूबा को बनाया. उसको सफलता मिली, लेकिन क्यूबा में भी साम्यवादी शासन की स्थापना के बावजूद वह रुका नहीं, जबकि फिदेल ने उसको मंत्री पद के साथ अन्य कई दायित्वों से लाद दिया था. चाहता तो वह उसके बाद आराम की जिंदगी जी सकता था. लेकिन कार्ल मार्क्स के कथन कि साम्यवाद का संघर्ष किसी एक देश में सर्वहारा की जीत से पूरा नहीं हो जाता, से प्रेरणा लेकर वह आजीवन संघर्ष करता रहा. अंततः एक योद्धा की भांति ही वीरगति को प्राप्त हुआ. इसलिए दुनिया में उसके करोड़ों प्रशंसक है. वह युवा पीढ़ी का ‘हीरो’, करोड़ों का प्रेरक और मार्गदर्शक है. तभी तो नेल्सन मंडेला ने चे ग्वेरा को हर उस मनुष्य का प्रेरणास्रोत बताया है, जो स्वतंत्रता को प्यार करता है. उसके जीना और मरना चाहता है.
बुद्धिजीवी योद्धा
चे एक बुद्धिजीवी योद्धा था. जिसका दुनिया को लेकर एक सपना था और उस सपने को सच में बदलने का उसका ढंग भी दूसरों से अलग था. क्योंकि समाजवाद की स्थापना के लिए सशस्त्र संघर्ष का सहारा तो चे से पहले लेनिन, स्टालिन, ट्राटस्की, माओ आदि ले चुके थे. 1848 में ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ द्वारा श्रमिक क्रांति का आवाह्न करते समय स्वयं कार्ल मार्क्स ने सर्वहारा के अधिपत्य हेतु सशस्त्र संघर्ष को उचित ठहराया था, हालांकि बाद में उसने अपनी मान्यताओं में संशोधन भी किया. समाजवादी क्रांति के लिए चे पहले भी कई विचारक, नेता स्वयं का बलिदान कर चुके थे. यदि अलग-अलग देशों में क्रांति के बाद के परिदृश्य को देखें तो संघर्ष में सफल होने के बाद लेनिन, स्टालिन, माओ आदि का संघर्ष केवल अपने देश तक सीमित था. अपने देश में साम्यवाद की स्थापना के बाद उन्होंने या तो सशस्त्र संघर्ष से विराम ले लिया था अथवा उनका बाकी संघर्ष केवल अंतरराष्ट्रीय कूटनीति तक सिमटकर रह गया था. लेनिन और स्टालिन बारी-बारी से सोवियत संघ के राष्ट्र-अध्यक्ष बने. माओ जिदांग ने चीन की बागडोर संभाली और आज भी उन्हें चीनी गणराज्य के पितामह का गौरव प्राप्त है. इन सभी में एक समानता है कि अपने देश में समाजवादी क्रांति की सफलता के बाद इन सभी नेताओं ने सशस्त्र संघर्ष से किनारा कर लिया था. किंतु चे एक ऐसा समर्पणशील योद्धा था कि क्यूबा सरकार में मंत्रीपद प्राप्त करने के बावजूद संघर्ष में हिस्सा लेता रहा. वह अर्जेंटीना में जन्मा. क्यूबा के साम्यवादी संघर्ष में कामयाब हुआ और बोलेविया में सामाजिक क्रांति के लिए संघर्ष करता हुआ शहीद हुआ. कार्ल मार्क्स ने कहा था कि मजदूर का कोई देश नहीं होता. चे ने अपने जीवन से सिद्ध किया कि साम्यवाद के योद्धा का भी कोई देश नहीं होता.
अर्जेंटाइना में जन्म लेने के बावजूद पूरा लातीनी अमेरिका उसकी संघर्ष भूमि रहा. क्यूबा के लिए समाजवादी आंदोलन में सफल होने के बाद भी वह रुका नहीं, बल्कि कांगो, बोलेविया आदि लातीनी अमेरिकी देशों में पूंजीवादी वर्चस्व की कमर तोड़ने की लगातार कोशिश करता रहा.
1964 में जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र की बैठक को संबोधित करते हुए चे ने कहा था कि न्याय ताकतवर लोगों के हितरक्षण का औजार बन चुका है. कानूनी दावपेंच इस वर्ग की स्थिति को और अधिक सुदृढ़ करने के काम आते हैं. इसी का लाभ उठाकर वह नियमों की अपने वर्गीय हितों के अनुकूल व्याख्या करता है, जिससे पूंजी का पलायन लगातार ऊपर की ओर होता चला जाता है. कला और संस्कृति जैसे लोकसिद्ध माध्यम भी इसमें सहायक बनते हैं. चे का मानना था कि पूंजीवाद ने युवाओं को भ्रमित कर ऐसी स्थितियां पैदा की हैं, जो सामान्य जन की समझ से पूरी तरह बाहर हैं. उसका मानना था कि पूंजीवादी समाज में जनसाधारण को अनुशासित-नियंत्रित करने के लिए जो नियम बनाए जाते हैं, वे जानबूझकर जटिल बनाए जाते हैं . पूंजीवाद के जटिल नियम बहुसंख्यक आमजन की समझ से परे होते हैं. पूंजीवाद यूं तो सभी के लिए समान अवसर प्रदान करने का दावा करता है, परंतु यथार्थ में विनियोजन के बहाने जनसाधारण को धन से वंचित कर दिया जाता है. अपने निबंध ‘सोश्यिलिज्म एंड मेन इन क्यूबा’ में उसने लिखा था कि अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए—‘पूंजीवाद बल का उपयोग करता है...जब भी सुधार की कोई संभावना बनती है, पूंजीवाद उसके विरोध के लिए (धर्म और) जातिवाद को आगे कर देता है, जिससे विकास की समस्त संभावनाएं स्वतः धराशायी हो जाती हैं.’
चे कहते थे कि क्रांतिपथ पर सफलता युवाशक्ति की मदद के बगैर संभव नहीं. फिदेल कास्त्रो को लिखे गए एक पत्र में चे ने लिखा था—‘सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध युवाशक्ति ही हमारी आशा का एकमात्र केंद्र हैं. यही वह मिट्टी है जिससे हमें अपनी अपेक्षाओं की दुनिया का निर्माण करना है. हमें अपनी उम्मीदें युवाशक्ति के मन में बिठा देनी होंगी तथा उसको अपने साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए तैयार करना होगा. उसको यह अच्छी तरह से समझा देना होगा कि क्रांतिपथ पर आगे बढ़ने का अभिप्राय है—जिंदगी अथवा मौत—
‘क्रांति यदि सच्ची है तो उसमें एक ही चीज प्राप्त हो सकती है—जीत या फिर मौत!’
चे का लक्ष्य समाजवाद की स्थापना करना था. वह लातीनी अमेरिकी देशों में उत्तरी अमेरिका के पूंजीवादी साम्राज्यवाद द्वारा किए जा रहे शोषण का नंगा रूप देख चुका था. ग्वाटेमाला, कांगो, क्यूबा, बोलेविया आदि देशों में उसने पूंजीवाद के विरुद्ध अपने संघर्ष को आगे बढ़ाने का काम भी किया था. उसको उम्मीद थी कि साम्राज्यवाद से लड़ाई में बाकी देश और संगठन भी उसकी मदद को आगे आएंगे. पूंजी-आधारित साम्राज्यवाद से चे का संघर्ष किसी एक देश या राज्य की सीमा तक बंधा हुआ नहीं था, बल्कि उन सभी देशों तक विस्तृत था, जो औपनिवेशिक शोषण का शिकार थे.
भारत की यात्रा
क्यूबा सरकार के मंत्री के रूप में चे ने 1959 में भारत की यात्रा करने के बाद वहां के शासक फ़िदेल कास्त्रो को जो रिपोर्ट सौंपी थी, उसमें उन्होंने लिखा: ' हमें नेहरू ने बेशकीमती मशविरे दिए... भारत- यात्रा से हमें कई लाभदायक बातें सीखने को मिलीं। सबसे महत्वपूर्ण बात हमने यह जानी कि एक देश का आर्थिक विकास उसके तकनीकि विकास पर निर्भर करता है और इसके लिए वैज्ञानिक शोध संस्थानों का निर्माण बहुत जरूरी है। मुख्य रूप से मेडिकल, रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान और कृषि विज्ञान के क्षेत्र में"
मूल्यांकन
औपनिवेशिक शोषण से मुक्ति तथा जनकल्याण हेतु क्रांति की उपयोगिता को चे न केवल पहचाना, बल्कि उसके लिए आजीवन संघर्ष करता रहा. अंततः उसी के लिए अपने जीवन का बलिदान भी किया. उसकी वैचारिक निष्ठा बेमिसाल थी. बुद्धि और साहस का उसमें अनूठा मेल था. विचार के साथ-साथ उसने समरक्षेत्र में भी अनथक, अद्वितीय, वीरतापूर्ण संघर्ष किया. समाजवादी क्रांति का औचित्य सिद्ध करने के लिए वह लगातार वैचारिक लेखन करता रहा. समाजवाद और औपनिवेशिक शोषण पर दिए गए उसके भाषण आज एक वैश्विक बुद्धिसंपदा हैं. निष्पृह नेता तथा निर्भीक विचारक का गुण उसको अपने समकालीन विचारकों एवं नेताओं से अलग सिद्ध करता है. वह आदर्श क्रांतिकारी था. उसका संघर्ष किसी एक देश के लिए न होकर समूची मनुष्यता के हित में था. उसकी यही विलक्षणता उसे बीसवीं शताब्दी के विश्व के 25 महानतम व्यक्तित्वों में सम्मानित स्थान पर प्रतिष्ठित करती है. चे ग्वेरा को प्रसिद्धि फिदेल कास्त्रो से कहीं अधिक मिली.
चे ग्वेरा की जीवनी लिखने वाले अमेरिकी पत्रकार जॉन ली एंडरसन के मुताबिक़ ‘ ग्वेरा की ख़ुद को मिटाकर क्रांति को जिंदा रखने की ज़िद ने विद्रोहियों के बीच उन्हें सबसे ऊंचा मुक़ाम दिलाया था.' प्रसिद्ध ‘टाइम’ पत्रिका द्वारा चे को बीसवीं शताब्दी की दुनिया-भर की पचीस सबसे लोकप्रिय प्रतिभाओं में सम्मिलित किया गया है. बाकी प्रतिभाओं में अब्राहम लिंकन, महात्मा गांधी, नेलसन मंडेला आदि अनेक नेता सम्मिलित हैं.
चे की सबसे बड़ी खासियत थी कि वह किसी भी विचारधारा की कमी और मजबूती को अच्छे से समझता था. वह यह भी मानता था कि हर देश की भौतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुसार शोषण के खिलाफ लड़ाई के अलग-अलग रूप हो सकते हैं. लैटिन अमेरिकी देशों में अगर समाजवाद आज भी एक बड़ी ताकत है तो चे का इसमें अहम योगदान है.
एर्नेस्तो ‘चे’ गेवारा. वह शख्स जो कुछ लोगों के लिए हीरो था तो कुछ के लिए हत्यारा. उस पर आरोप लगता था कि वह तीसरा विश्वयुद्ध करवाना चाहता है. अमेरिका और अमेरिकी स्पेशल फोर्सेज उसे ख़त्म करना चाहती थीं. उसके शव को रहस्यमय तरीके से किसी अनजान जगह पर दफ़नाया गया था. पर जिस व्यक्ति का नामोनिशान अमेरिका और पूंजीवादी ताक़तें मिटा देना चाहती थीं, वह आज एक किंवदंती बन चुका है.
फ्रांस के महान दार्शनिक और अस्तित्ववाद के दर्शन के प्रणेता ज्यां-पॉल सार्त्र ने ‘चे’ गेवारा को ‘अपने समय का सबसे पूर्ण पुरुष’ जैसी उपाधि दी थी. इसके पीछे गेवारा की भाईचारे की भावना और सर्वहारा के लिए क्रांतिकारी लड़ाई का वह आह्वान था जो उन्होंने दक्षिण अमेरिका के लिए किया था. उनके ये विचार उस ‘नए पुरुष’ के जन्म का सपना थे जो अपने लिए नहीं बल्कि समाज के लिए मेहनत करता है.
ग्राहम ग्रीन के अनुसार चे ने समाज में वीरता, साहस, संघर्ष एवं रोमांच को सुंदरता से अभिव्यक्त किया है. क्यूबा के स्कूलों में बच्चे आज भी प्रार्थना करते हैं कि वे ‘चे की तरह बनेंगे.’ दुनिया-भर के युवकों में चे के प्रति गजब की दीवानगी देखने को मिलती है, जिसका लाभ उठाने के लिए पूंजीवादी कंपनियां ‘चे’ के नाम से उत्पादों की रेंज बाजार में उतारती रहती हैं. चे नई पीढ़ी का ‘आइकन’ है. विद्रोह का प्रतीक है. चे अपने अदम्य दुस्साहस, निरंतर संघर्षशीलता,अटूट इरादों व पूंजीवादी विरोधी मार्क्सवादी विचारधारा के कारण आज पूरी दुनिया में युवाओं के महानायक हैं . चे की लोकप्रियता का प्रमाण यह है कि जिस अमेरिकी साम्राज्यवाद से वह आजन्म जूझता रहा, उसी की कंपनियां चे की बेशुमार लोकप्रियता को भुनाने के लिए बनियान, अंडरवीयर, चश्मे आदि उपभोक्ता साम्रगी की बड़ी रेंज उसके नाम से बाजार में उतारती रहती हैं.
स्रोत: चे ग्वेरा के जीवन एवं योगदान पर प्रकाशित विभिन्न प्रामाणिक पुस्तकें व आलेख.
*अर्नेस्टो चे ग्वेरा: प्रखर साम्यवादी, छापामार यौद्धा. लेखक: ओमप्रकाश कश्यप
* Sinclair, Andrew ( 2006) Viva Che! The strange Death and Life of Che Guevara.
-------प्रो हनुमाना राम ईसराण

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