- मैंने देखा है
- उन मजदूरों को
- जो पत्थर तोड़ते हैं
- काली गहरी खदानों में
- उनके कन्धों पर बडे़ बड़े घाव है
- तेज नुकीले पत्थरों से
- उनके पैरों में पड़े हैं बड़े बड़े छाले।
- वे जब ढोते हैं पत्थर
- बहता पसीना सिर से पैर तक।
- तर हो जाते है वस्त्र
- फिर भी आराम कहाँ है ?
- उन्होंने राष्ट्रपति ,प्रधानमंत्री
- और न जाने कितने भवन बनाए
- किन्तु उन भवनों में बैठ
- एक घूंट पानी या दो पल आराम की
- इजाजत कहाँ हैं ?
- हे मजदूर तेरा जीवन
- देश के नेताओं के घर बनाने में गया
- किन्तु उनमें घुसने की इजाजत तुझे नहीं है ।
- राष्ट्रपति भवन का असली मालिक तो तू ही है
- लेकिन वहाँ गया तो
- तुझको गँवार आतंकवादी या देशद्रोही
- घोषित कर दिया जाएगा।
Saturday, 17 June 2017
कविता: मजदूर
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