Wednesday 1 August 2018

नेल्सन मंडेला: सतत और सफ़ल संघर्ष की प्रतिमूर्ति

नेल्सन मंडेला: सतत और सफ़ल संघर्ष की प्रतिमूर्ति       ---प्रो. एच. आर. ईसराण
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दक्षिण अफ्रीका के प्रथम अश्वेत राष्ट्रपति नेल्सन रोलीह्लला मंडेला को न्याय, समानता और सम्मान के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई का प्रतीक माना जाता है। हक़ के लिए दीर्घकालीन संघर्ष के प्रति समर्पित उन जैसे आज़ादी के दीवाने की दुनिया में दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल। सतत संघर्ष और साहस के बल पर दुनिया के इतिहास में अमिट छाप छोड़ने वाली इस बेमिसाल प्रेरणास्पद शख्सियत की स्मृति को सादर नमन।
जन्म: 18 जुलाई 1918 को म्वेज़ो, ईस्टर्न केप, दक्षिण अफ़्रीका संघ में ।
मृत्यु: 5 दिसंबर 2013 को 95 वर्ष की आयु में जोहान्सबर्ग (Johannesburg ) में ।
नेल्सन रोहिल्हाला मंडेला...यानी ‍वह शख्स, जिसको अपनी जिंदगी के 27 वर्ष केप टाउन के किनारे स्थित कुख्यात रॉबेन द्वीप जेल में नज़रबंद रहकर गुजारने पड़े। रंगभेद नीति के खिलाफ लड़ते हुए जिंदगी में अनगिनत कष्ट सहे लेकिन हार नहीं मानी। कारवास के दौरान उन्हें कोयला खनिक का काम करना पड़ा। ज़ुल्मी सत्ता ने मंडेला को जब जेल में ठूंसा तब वे युवा थे, 27 वर्ष बाद जब जेल से मुक्त किया गया तब बुढ़ापा उन्हें अपने आगोश में ले चुका था। उम्र के असर से शरीर बूढ़ा पर आत्मबल अभी जवान था।
मंडेला ने निर्वासित जीवन जीकर और जेल में क्रूर यातनाएं सहकर दक्षिण अफ्रीका को बीसवीं सदी के अंतिम मोड़ पर नस्लभेदी गोरी सरकार से आजाद करवा कर ही दम लिया। गोरी सरकार/ श्वेत-सरकार की जगह एक लोकतांत्रिक बहुनस्लीय सरकार बनाने के सपने को साकार कर दिखाया।
श्वेतों की शोषणकारी गोरी सरकार
दक्षिण अफ्रीका की प्रिटोरिया में श्वेतों की सरकार का शासनकाल मानव सभ्यता के इतिहास में 'चमड़ी के रंग' ( Colour of skin ) और नस्ल ( Race ) के आधार पर मानव द्वारा मानव पर किए गए अत्याचारों का सबसे काला एवं घृणित अध्याय है। दक्षिणी अफ्रीका की श्वेत सरकार दुनिया की एकमात्र ऐसी सरकार थी, जिसने जातीय पृथक्करण एवं रंगभेद पर आधारित लिखित कानून बना रखा था। वहां के 88 प्रतिशत मूल अश्वेत अपनी ही जमीन पर बेगाने हो गए और बाहर से आए 12 प्रतिशत गोरी चमड़ी वाले ( Whites ) देश की लगभग 87 प्रतिशत भू-भाग के मालिक बन गए थे। विचित्र बात ये देखिये कि गोरों द्वारा गोरों के लिए चल रहे लोकतंत्र की नोटंकी में वहां के मूल बाशिन्दों, जो कि अश्वेत थे, उन्हें वोट का अधिकार नहीं था। वोट का अधिकार सिर्फ 12 प्रतिशत गोरी चमड़ी के लोगों का था, जो बाहर से आकर वहाँ बसे थे और सब वहाँ के सब संसाधनों पर कब्ज़ा कर चुके थे।
श्वेतों की अश्वेतों के प्रति भेदभावपूर्ण एवं दमनकारी नीतियों से त्रस्त अश्वेतों को 16 वर्ष की आयु के बाद हर वक्त अपने पास अश्वेत होने का प्रमाण-पत्र, जिसे 'पास' कहा जाता था, रखने के लिए बाध्य किया जाता था। शोषण का चाबुक उन पर हरदम चलाया जाता था।
अफ्रीकी अश्वेत बच्चे का जन्म 'केवल अश्वेतों के लिए' वाले अस्पताल में होता था। फिर इसी तख्ती वाली बस में उसे घर जाना पड़ता, ऐसी ही बस्ती में रहना पड़ता, ऐसे ही स्कूल में पढ़ना पड़ता, निम्न दर्ज़े की चाकरी करनी पड़ती और ट्रैन के निम्न दर्ज़े में सवारी करनी पड़ती। 'कुत्ते और काले यहां न आएं' जैसे वाक्य महज लतीफे नहीं, उनके जीवन की सच्चाई थे।
अफ्रीका के अश्वेतों पर नहीं बल्कि अन्य देशों के लोगों पर भी रंग के आधार पर जुल्म किए जाते थे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है गांधीजी, जिनका सामान वहां ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया। महात्मा गांधी ने रंगभेद के खिलाफ अपना संघर्ष दक्षिण अफ्रीका में शुरू किया, तो नेल्सन मंडेला ने उसी जमीन पर गांधी की विरासत को आगे बढ़ाया। इस बर्बरता और अत्याचार के स्याह घेरे को तोड़ने का कालजयी और पराक्रमी कार्य मंडेला ने कर दिखाया।
राजनीतिक जीवन
नेल्सन मंडेला सन 1944 में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस में शामिल हुए। उद्देश्य था कांग्रेस द्वारा दक्षिणी अफ्रीका में चलाए जा रहे रंगभेद के विरुद्ध आंदोलन में सक्रिय भाग लेना।
नेल्सन मंडेला ने उसी वर्ष में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के यूथ लीग की स्थापना की । 1947 में वे इस लीग के सचिव चुने गए तथा प्रभावी राजनीतिक जीवन की शुरुआत की।
1948 में दक्षिण अफ्रीका में नेशनल पार्टी की सरकार सत्ता में आयी और उसने रंगभेद को सरकारी नीति का रूप दे दिया। अब 12 प्रतिशत गोरों के मुकाबले 88 प्रतिशत अश्वेत गुलामी की जिंदगी जीने के लिए मजबूर कर दिये गये थे। रंगभेद की नीति के तहत पार्कों, होटलों, रेल के डिब्बों और यहां तक कि शौचालयों आदि को भी गोरों के लिए अलग और शेष आबादी के लिए अलग निर्धारित कर दिया गया। युवा मंडेला ने अश्वेतों के हक़ की लड़ाई के दौरान बड़ी शिद्दत से यह महसूस किया कि रंगभेद के खिलाफ संघर्ष में उनके सच्चे मित्र कम्युनिस्ट ही हो सकते हैं और फिर एएनसी तथा साउथ अफ्रीकन कम्युनिस्ट पार्टी (एसएसीपी) के बीच ऐसा तालमेल बना जो आज तक किसी न किसी रूप में कायम है।
1951 में नेल्सन मंडेला को यूथ कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया। नेल्सन ने अश्वेतों की कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए 1952 में एक कानूनी फर्म की स्थापना की। कुछ ही समय में उनकी फर्म देश की पहली अश्वेतों द्वारा चलाई जा रही फर्म हो गई, लेकिन नेल्सन के लिए वकील का दायित्व और राजनीति को एक साथ लेकर चलना मुश्किल साबित हो रहा था। इसी दौरान उन्हें ट्रांसवाल कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया। 1956 में जब मंडेला को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया तो उनके खिलाफ जो धाराएं लगायी गयीं उनमें ‘सप्रेशन ऑफ कम्युनिज्म ऐक्ट’ भी था।
मंडेला के जन्म से चार वर्ष पूर्व ही 1914 में महात्मा गांधी वापस भारत आ चुके थे लेकिन इससे पहले उन्होंने 21 वर्ष दक्षिण अफ्रीका में बिताये थे और वहां बसे भारतीय मूल के लोगों की समस्याओं को लेकर किये गये आंदोलनों की वजह से उनकी चर्चा वहाँ होती थी। मंडेला, गांधी की अहिंसा के कभी समर्थक नहीं रहे तो भी 1952 में एएनसी के अवज्ञा आंदोलन (डिफायंस कैंपेन) जैसे कार्यक्रमों में उन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया । उन दिनों हिंसा और अहिंसा के सवाल को लेकर मंडेला के मन में एक द्वंद्व चलता रहता था।
उधर सरकार द्वारा चलाया गया दमनचक्र अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस और नेल्सन का जनाधार बढ़ा रहा था। लोग संगठन से जुड़ने लगे और आंदोलन दिन प्रतिदिन मजबूत होता जा रहा था। रंगभेदी सरकार आंदोलन को तोड़ने के लिए हर संभव प्रयास कर रही थी। इसी बीच कुछ ऐसे कानून पास किए गए, जो अश्वेतों को नागवार थे। नेल्सन ने इन कानूनों का विरोध करने के लिए प्रदर्शन आयोजित किए। इसी तरह के एक प्रदर्शन में दक्षिण अफ्रीकी पुलिस ने शार्पविले शहर में प्रदर्शनकारियों पर गोलियों की बौछार कर दी, जिसमें 69 लोग मारे गए।
सन 1960 में घटित इस घटना ने हिंसा और अहिंसा के सवाल पर मंडेला के मष्तिष्क में चल रहे द्वंद्व को पूरी तरह समाप्त कर दिया और इस हिंसा ने मंडेला के इस कथन को स्थापित कर दिया कि ‘राज्य की हिंसा का मुकाबला क्रांतिकारी हिंसा से ही संभव है।’
इस घटना के दो वर्ष बाद ‘रिवोनिया ट्रॉयल’ के दौरान नेल्सन मंडेला ने अदालत में अपने बयान में कहा- ‘सरकारी हिंसा की एक ही परिणति है- वह जवाबी हिंसा को जन्म देती है। हमने सरकार को बार-बार चेतावनी दी है कि हिंसा का सहारा लेने से जनता की ओर से जवाबी हिंसा ही सामने आयेगी और यह सिलसिला तब तक जारी रहेगा जब तक सरकार के होश ठिकाने नहीं आ जाते और जब तक जनता और सरकार के बीच हिंसा के जरिए विवादों का अंतिम तौर पर निपटारा नहीं हो जाता।’ शार्पविले का प्रदर्शन दक्षिण अफ्रीका के इतिहास में अंतिम शांतिपूर्ण प्रदर्शन था। इसके बाद ही अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के सशस्त्र संगठन ‘उम्खोन्तो वी सिज्वे’ (स्पीयर आफ दि नेशन या राष्ट्र का भाला) का जन्म हुआ और नेल्सन मंडेला इसके कमांडर इन चीफ बनाये गये।
रास्ता नया था, मंजिल अभी भी वही थी-अपने लोगों ( अश्वेतों) के लिए न्याय और सम्मान हासिल करना। इस कदम ने रही-सही कसर पूरी कर दी और रंगभेदी सरकार ने नेल्सन के दल पर प्रतिबंध लगा दिया। पूरी दुनिया में इस काम के लिए सरकार की आलोचना हो रही थी। मानवाधिकार संगठन इस हैवानी कृत्य की तरफ पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित करवा रहे थे। नेल्सन वैश्विक नेता के तौर पर उभर रहे थे।
श्वेतों के नेतृत्व वाली दक्षिणी अफ्रीकी सरकार का पूरा ध्यान नेल्सन को गिरफ्तार कर पूरे संगठन को खत्म करने में था। इस त्रासदी से बचने के लिए उन्हें चोरी-छुपे देश के बाहर भेज दिया गया, ताकि वे स्वतंत्र रहकर अपने लोगों का नेतृत्व कर सकें। देश के बाहर आते ही उन्होंने सबसे पहले अदीस अबाबा में अफ्रीकी नेशनलिस्ट लीडर्स कांफ्रेंस को संबोधित किया और बेहतर जीवन के अपने आधारभूत अधिकार की मांग की। वहां से निकलकर वे अल्जीरिया चले गए और लड़ने की गुरिल्ला तकनीक का गहन प्रशिक्षण लिया। इसके बाद उन्होंने लंदन की राह पकड़ी जहां ओलिवर टाम्बो एक बार फिर उनके साथ आ मिले। लंदन में विपक्षी दलों के साथ उन्होंने मुलाकात की और अपनी बात को पूरी दुनिया के सामने समझाने की कोशिश की। इसके बाद वे एक बार फिर दक्षिण अफ्रीका पहुंचे परन्तु पहुंचते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और जेल में डाल दिया गया।
मंडेला को मजदूरों को हड़ताल के लिए उकसाने के लिए और बिना अनुमति देश छोड़ने के आरोप में अगस्त 1962 को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। उन पर मुकदमा चला और 12 जुलाई 1964 को उन्हें उम्र कैद की सजा सुना दी गई। उन्हें रोबिन द्वीप की जेल में भेज दिया गया। अंततः 11 फरवरी 1990 को उनकी रिहाई हुई। रिहाई के बाद समझौता और शांति की नीति के तहत उन्होंने दक्षिणी अफ्रीका में एक लोकतांत्रिक एवं बहू जाति भवन असली अफ्रीका की नींव रखी।
मंडेला ने न्याय, समानता व सम्मान पर आधारित नये दक्षिण अफ्रीका का निर्माण किया। तक़रीबन साढ़े तीन सौ साल की गौरों की गोरशाही( Whitocracy ) के बाद सन 1994 में दक्षिण अफ्रीका में प्रथम वास्तविक जनतांत्रिक चुनाव हुए और 10 मई 1994 को नेल्सन मंडेला दक्षिणी अफ्रीका के राष्ट्रपति चुने गये तथा वे इस पद पर 16 जून 1999 तक रहे।
नेल्सन मंडेला जब जेल से मुक्त हुए थे तो उन्होंने कहा था “हमारा ध्येय जुल्म सहने वालो और जुल्म करने वाले दोनों को मुक्त करना है। अभी तक हम इस ध्येय में सफल नही हुए हैं। सच्चाई यह है कि हम अभी तक मुक्त नही है। हमने इस आजादी में जुल्म न सहने का अधिकार प्राप्त किया है। अभी इस आजादी की जंग जारी है।"
भारत का दक्षिणी अफ्रीका से पुराना नाता
औपनिवेशिक इतिहास की वजह से भारत का दक्षिण अफ्रीका के साथ सदियों पुराना रिश्ता रहा है। उन्नीसवीं सदी में भारतीय मजदूर रोजी -रोटी के लिए दक्षिण अफ्रीका पहुंचे तो काम के दौरान उनका शोषण करने के अलावा उन्हें 'कुली' कह कर पुकारा जाने लगा। उनके पास अत्यंत सीमित अधिकार थे। लगभग 50 साल के बाद जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका पहुंचे तब उन्होंने इसके खिलाफ आवाज उठाई। लेकिन गांधी कुछ साल बाद अपने वतन लौट आए।
गांधी जी के भारत लौट आने के बाद दक्षिणी अफ्रीका में अश्वेतों और भारतीय मूल के लोगों के साथ अन्याय जारी रहा। इसके खिलाफ 20वीं सदी के दूसरे हिस्से में नेल्सन मंडेला ने आवाज उठाई। किसी जमाने में हिंसा में विश्वास रखने वाले मंडेला बाद में गांधी के बताए अहिंसा के रास्ते पर चले और यहीं से उन्हें विशाल कामयाबी मिलनी शुरू हुई। यह मंडेला का संघर्ष था कि जब दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों को वोट देने का अधिकार मिला, तो वहां बड़ी संख्या में रह रहे भारतीयों को भी यह हक दिया गया।
नेल्सन मंडेला ने अक्टूबर 1990 में भारत आने पर भारत और दक्षिण अफ्रीका के परम्परागत संबधो के विषय में कहा था “गांधीजी का अविस्मरणीय स्वतंत्रता का आन्दोलन दक्षिण अफ्रीका की धरती से आरम्भ हुआ था इसलिए कह सकते है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हमारा ही योगदान है “।
व्यक्तित्व-दर्शन
Conversation with Myself ( स्वयं से वार्तालाप/ख़ुद की ख़ुद से बात-चीत ) नामक पुस्तक मंडेला के मनुष्य रूप की तस्वीर प्रस्तुत करती है। संघर्ष के दिनों की उनके पत्र , डायरियां, भाषण, इंटरव्यू में हमें मंडेला की जिंदगी की झलक मिलती है। इनसे जेल में बिताए रोजमर्रा के जीवन से लेकर दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति के रूप में लिए गए उनके महत्वपूर्ण निर्णय--सभी कुछ से पाठक रूबरू होता है। इनमें हमें उनके विद्यार्थी और राजनीतिक जीवन की जानकारी मिलती है , और भविष्यदर्शी तथा व्यवहारिक नेता का उनका रूप सामने आता है। उन्होंने अपनी आत्मकथा को नाम दिया था ' लॉन्ग वाक टु फ्रीडम' ।
इस पुस्तक में मंडेला स्पष्ट करते हैं कि वह पूर्ण व्यक्ति नहीं रहे और दूसरे आदमियों की तरह उनमें भी कमियां थीं, लेकिन ये कमियां ही वे बातें हैं जो हमें संवरने एवं कुछ ख़ास कर गुजरने के लिए प्रेरित कर सकती है। इस क़िताब में कही गई कहानी एक ऐसे आदमी की कहानी है जो अपने विश्वास के लिए खतरा उठाने के लिए तैयार है, जो दुनिया को पहले से अच्छी जिंदगी देने के लिए संघर्ष की राह पकड़ता है और सफलता की मंज़िल तक पहुंचता है।
पुस्तक "नेल्सन मंडेला: मेरा जीवन– बातों- बातों में" की भूमिका में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने लिखा है कि- “हममें से बहुतों के लिए वह मनुष्य से कहीं ज्यादा थे- वह दक्षिण अफ्रीका और दुनिया भर में न्याय, समानता और सम्मान के लिए किए जाने वाले संघर्षों के प्रतीक थे। ” दुनिया में ऐसे व्यक्तित्व विरले मिलेंगे जिनके जीवन की कहानी उनके देश की आजादी की कहानी भी हो। नेल्सन मंडेला की संघर्ष-कथा एक कुचली हुई सभ्यता के जाग्रत और दुर्दम्य स्वाभिमान की कथा है।
Popular books authored by Nelson Mandela
* Mandela, Nelson. Nelson Mandela Speaks: Forging a Democratic, Nonracial South Africa.New York: Pathfinder, 1993.
*Mandela, Nelson. Long Walk to Freedom. The Autobiography of Nelson Mandela 1994.
*Mandela, Nelson. The Struggle Is My Life, 1986.
प्रमुख कथन
Education is the most powerful weapon which you can use to change the world.
शिक्षा सबसे शशक्त हथियार है, जिससे दुनिया को बदला जा सकता है।
After climbing a great hill, one only finds that there are many more hills to climb.
एक बड़ी पहाड़ी पर चढ़ने के बाद ही पता चलता है कि अभी ऐसी कई पहाड़ियां चढ़ने के लिए बाकी हैं।
To be free is not merely to cast off one's chains , but to live in a way that respects and enhances the freedom of others.
स्वतंत्र होना अपने जंजीर को उतार फेंकना मात्र नहीं है, बल्कि इस तरह जीवन जीना है जिससे कि औरों का सम्मान और स्वतंत्रता बढे।
मान-सम्मान

नमंडेला दक्षिण अफ्रीका एवं समूचे विश्व में रंगभेद का विरोध करने के प्रतीक बन गये। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने उनके जन्म दिन को नेल्सन मंडेला अन्तर्राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने नवंबर, 2009 में प्रतिवर्ष 18 जुलाई को ‘नेल्सन मंडेला अंतर्राष्ट्रीय दिवस’ मनाने की घोषणा की थी। यह दिवस पहली बार 18 जुलाई, 2010 को मनाया गया।
सन 1993 में नेल्सन मंडेला और डी क्लार्क को संयुक्त रूप से शांति के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया।
मंडेला को सन 1990 में भारत की ओर से सर्वोच्च नागरिक सम्मान “भारत रत्न” से भी सम्मानित किया गया। उस समय तक नेल्सन मंडेला दक्षिणी अफ्रीका के राष्ट्रपति नहीं चुने गये थे।
भारत का सबसे बड़ा सम्मान भारत रत्न पाने वाले नेल्सन मंडेला भारतीय उप महाद्वीप के बाहर के पहले शख्स बने। हालांकि इससे पहले पाकिस्तान के खान अब्दुल गफ्फार खान को भी यह सम्मान दिया जा चुका था, लेकिन सीमान्त गांधी का जन्म अविभाजित भारत में हुआ था। दीन- दुखियों की सेवा के लिए मदर टेरेसा को भी इस सम्मान से नवाजा गया, लेकिन मदर टेरेसा के पास भी भारत की नागरिकता थी। भारत रत्न के बाद उन्हें 1992में पाकिस्तान के सबसे बड़े सम्मान निशान-ए-पाकिस्तान से भी नवाजा गया।
मूल्यांकन
रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाने वालों में गांधी के बाद अगर जिन विभूतियों का नाम दिमाग में कौंधता है, तो निर्विवादित रूप से वे हैं, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला। मंडेला के एक एक शब्द में जादू हुआ करता और लोग उनकी बातों को मुग्ध होकर सुनते थे।
नाइजीरिया के प्रसिद्ध उपन्यासकार चीनुआ एचेबे ने 2012 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘देयर वाज ए कंट्री, ए पर्सनल हिस्ट्री ऑफ बिआफ्रा’ में नेल्सन मंडेला को इस बात के लिए याद किया है कि कैसे वर्षों की जेल यातना के बाद उन्होंने राष्ट्रपति पद का पहला कार्यकाल समाप्त होते ही खुद को सत्ता की दौड़ से अलग कर लिया और अपने बाद की पीढ़ी को देश चलाने का मौका दिया। उन्होंने लिखा- ‘क्या यह याद दिलाने की जरूरत है कि मंडेला नाम का एक व्यक्ति है जिसने 27 साल दक्षिण अफ्रीका की जेल में बिताये और महज चार साल राष्ट्रपति पद पर रहने के बाद उसने खुद ही इस पद को छोड़ दिया ताकि युवा पीढ़ी अब आगे के काम को संभाले? जो लोग नहीं जानते उन्हें जानना चाहिए कि मंडेला की जिंदगी कोई आसान जिंदगी नहीं थी। अधिकांश लोग जिंदगी की कटुताओं से टूट जाते हैं लेकिन मंडेला के साथ ऐसा नहीं हुआ। वह महान व्यक्ति 11 फरवरी 1990 को जब लगभग तीन दशकों के बाद जेल से मुक्त हुआ तो तनी हुई मुट्ठियों के साथ अपने हाथों को हवा में लहरा रहा था। उसकी रिहाई ने दुनिया में ज़ुल्म के शिकार लोगों को एक रोशनी दी। सदियों से दमित और शोषित अश्वेतों ने मंडेला के रूप में अपनी अदम्य आकांक्षाओं को मूर्तिमान होते हुए देखा।’
मंडेला इस दुनिया में एक युग के तौर पर जाने जाएंगे। दक्षिण अफ्रीका का इतिहास उनके पहले और उनके बाद के काल के तौर पर जाना जाएगा। वह किसी सरहद और वक़्त के दायरों में बंधने वाले शख्स नहीं। मंडेला पूरी दुनिया के थे... महान व्यक्तित्व के लोग चाहे दुनिया में कहीं भी जन्मे हो, उनके व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व ने हमेशा आम आदमी को सीख दी है, प्रभावित किया है और प्रेरित भी किया है।
महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला जैसी शख्सियतें किंवदन्तियों में तब्दील ही होती हैं इसलिए कि उनका सार्वजनिक जीवन उनके निजी जीवन के साथ दूध-पानी के समान घुला-मिला होता है। बहुत कोशिशों के बावजूद नीर-क्षीर विवेकी वह पद्धति नहीं मिल पायी है जो उनके व्यक्तिगत को सार्वजनिक से अलगा सके।
---प्रो. एच. आर. ईसराणImage may contain: 1 person, smiling, text

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