Wednesday 1 August 2018

लोकतंत्र बना भीड़तंत्र Democracy turned Mobocracy

लोकतंत्र बना भीड़तंत्र 
Democracy turned Mobocracy 
********************************---- प्रोफ़ेसर एच. आर. ईसराण
आदमी का भीड़ में तब्दील होने का शौक उसकी बीमार मनोदशा का संकेत है। भीड़ के उन्माद का अपना खास मनोविज्ञान होता है। भीड़ दुःसाहस देती है पर आदमी की पहचान छीन लेती है। हम जानते हैं कि व्यक्ति की पहचान उसके विवेक से होती है, जबकि भीड़ की पहचान सिर्फ़ उन्माद से कारित करतूतों तक सीमित रहती है।
"Most people are other people. Their thoughts are someone else's opinions, their lives a mimicry, their passions a quotation," so says Oscar Wilde.
'ज़्यादातर लोग दूसरे लोग होते हैं। उनके विचार किसी दूसरे के विचार होते हैं, उनकी ज़िंदगियाँ दूसरों की नकल होती हैं, उनके आवेग दूसरों की बातों से बनते हैं।’ ऑस्कर वाइल्ड का यह कथन भीड़ की मनोदशा दर्शाने के लिए पर्याप्त है।
उन्मादी भीड़ की खास बात यह होती है कि उसमें कोई किसी को पहचाने यह जरूरी नहीं, लोग एक-दूसरे को देख कर, एक दूसरे की तरह आचरण करते हुए किसी हादसे को अंजाम देने में लग जाते हैं। भीड़ की घटिया हरकत के दौरान भड़काऊ आदमी अपनी पहचान पर आवरण डालने में सफ़ल हो जाता है। अहंकार और मानसिक खोखलेपन से ग्रस्त यह भीड़ किसी के इशारे पर या अफ़वाहों की 'हैवी डोज़' से उत्प्रेरित होकर यकायक जुटती है और निहत्थे और लाचारों को अपना शिकार बनाती है। गौरतलब है कि पिछले कुछ सालों से इस भीड़ की काली करतूतों की एक पैटर्न बन चुकी है। 

' ये कैसी सियासत है मेरे मुल्क पे हावी
इंसान को इंसान से जुदा देख रहा हूँ।'

याद आता है निदा फ़ाज़ली का यह शेर:
" कोई हिन्दू है, कोई मुस्लिम, कोई ईसाई है
सबने इंसान न बनने की कसम खाई है।"
शुरुआत में किसी धर्म/ जाति / समूह विशेष को कोई विशेष पहचान देकर उसे गौरवान्वित कर योजनापूर्वक उसका महिमा मण्डन किया जाता है। फ़िर उससे जुड़े लोगों के दिमाग़ में दूसरे समूहों के खिलाफ नफ़रत पैदा कर उनके विरुद्ध बर्बर व्यवहार करने के लिए उकसाया जाता है। मौजूदा हालात में हो रहे टकराव तथा हत्याकांड किसी अनुपम और अद्वितीय कही जाने वाली पहचान ( धर्म, संस्कृति आदि के नाम पर ) के भ्रम से जुड़े हैं। नफ़रत को भड़काने की कला में माहिर संगठन किसी धर्म/ जाति से सम्बंधित पहचान/ अस्मिता को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं। क्रूरता को अपनी हदें पार करने के लिए खुला छोड़ दिया जाता है। इसका परिणाम उसकी आदिम हिंसा के उद्रेक ( overflow ) में होता है जिसे आतंकवाद कहा जा सकता है।
अज़ीब दौर है यह। युवाओं के मस्तिष्क में दकियानूसी और अवैज्ञानिक विचारों का रोपण कर उन्हें रोबोट में तब्दील किए जाने की साज़िश सरेआम रची जा रही है। हर वक्त सोशल मीडिया पर राष्ट्रद्रोही, गद्दार, दलाल, मुल्ला, सिर के बदले सिर आदि शब्दों की झड़ी लगाकर जन सामान्य के मन में एक दूसरे के प्रति नफ़रत के बीज बोए जा रहे हैं। उधेश्य जग-ज़ाहिर है। ध्रुवीकरण के ज़रिए वोट की फ़सल को सिंचित कर वोट संचित करना।
गौरतलब है कि ये घटनाएं अक्सर सुनियोजित होती हैं। इन घटनाओं के विडियो तैयार किए जाते हैं और फिर सोशल मीडिया के जरिए उन्हें ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जाता है। हजारों की संख्या में लोग इनके पक्ष में लिखते हैं और जो इनके विरोध में कुछ लिखने की हिम्मत करते हैं, उन्हें राष्ट्र द्रोही घोषित कर उनके ख़िलाफ़ फ़तवा जारी का दिया जाता है। विचित्र किंतु सत्य बात यह है कि जो कभी मुखबिर थे, उनकी संतति आजकल मुखवीर बनकर उधम मचाने की अगुवाई कर रही है। मुहँ में राम, बग़ल में नाथूराम। गालियाँ इनके जुबान का श्रृंगार बन चुकी हैं। सोशल मीडिया पर अफ़वाहों का अनवरत थूक थूकते जा रहे हैं।
नशाख़ोरी के चँगुल में फँसकर अपना विवेक गिरवी रख चुके एवं बेरोज़गारी से त्रस्त युवा अपना गुस्सा और कुण्ठा हिंसक घटनाएँ कारित करके निकालते हैं। देखा जाए तो संकीर्णता परोसने वाला धर्म, राष्ट्रवाद, जातीय अहंकार आदि नशे के विविध रूप हैं। भीड़ के नक़ाब के पीछे छुपकर लोग भीड़ में अपनी नई-पुरानी भड़ास भी निकाल लेते हैं। सत्ता के संरक्षण में पोषित कुछ संगठन अपनी कट्टर विचारधारा को कानून से बड़ा होने का मुगालता पालकर हिंसा का सहारा लेते हुए हाथों-हाथ फैसला करना अपना अधिकार समझने लगे हैं।
मुख्य धारा के मीडिया को सत्ता की चाटुकारिता की लत ऐसी लगी है कि उसने अपनी भूमिका सत्तासीन की स्तुति- गान तक समेट ली है। सत्ता के गलियारों की परिक्रमा कर उसकी रौनक़ का बखान करना उसने अपना फ़र्ज़ मान लिया है।
किसी भी सभ्य और आधुनिक देश में बहुसंख्यक समुदाय की यह बड़ी जिम्मेदारी है कि जो अल्पसंख्यक हैं उनकी वह हिफाजत करे, उन्हें प्रेम और अपनेपन के साथ मुख्यधारा में जोड़ने का प्रयास करता रहे। साथ ही अल्पसंख्यक समुदाय की भी जिम्मेदारी बनती है कि टकराव की राह से बचकर मेल-मिलाप और सौहार्द के साथ रहने की नीति का अनुसरण करे। सबके दीर्घकालिक हित में यही है।
ख्यातनाम व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने 1991 में एक व्यंग्य-लेख ‘आवारा भीड़ के खतरे’ शीर्षक से लिखा। उसके चुनिंदा अंश प्रस्तुत हैं जो हमारे देश के हालिया हालात को बख़ूबी बयां करते हैं। मौजूदा राष्ट्रीय परिदृश्य पर गाय, गोबर, हिन्दुत्व, मंदिर-मस्ज़िद, लव जिहाद, घर वापसी, विश्व गुरु, न्यू इण्डिया आदि के नाम पर आवारा भीड़ जुटने और फिर भीड़ का राज कायम करने की उसकी ललक के कारणों को यह रचना सटीक रूप से उद्भाषित करती है। परसाई जी की मर्मभेदी दृष्टि, उनका चुटीलापन और उनकी सरस शैली अनूठी है।
गौर से पढ़िए परसाई जी की रचना 'आवारा भीड़ के ख़तरे' के चुनिंदा अंश :
"एक अंतरंग गोष्ठी- सी हो रही थी युवा असंतोष पर। इलाहाबाद के लक्ष्मीकांत वर्मा ने बताया, “पिछली दीपावली पर एक साड़ी की दुकान पर काँच के केस में सुंदर साड़ी से सजी एक सुंदर मॉडल खड़ी थी। एक युवक ने एकाएक पत्थर उठाकर उस पर दे मारा...
हम 4-5 लेखक चर्चा करते रहे कि लड़के के इस कृत्य का क्या कारण है? क्या अर्थ है? यह कैसी मानसिकता है? यह मानसिकता क्यों बनी? बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ये सवाल दुनिया भर में युवाओं के बारे में उठ रहे हैं। पश्चिम के सम्पन्न देशों में भी और तीसरी दुनिया के गरीब देशों में भी...
भीड़-की-भीड़ उन युवकों की है जो हताश, बेकार और क्रुद्ध हैं। सम्पन्न पश्चिम के युवकों के व्यवहार के कारण भिन्न हैं।
सवाल है – उस युवक ने सुंदर मॉडल पर पत्थर क्यों फेंका? ‘...
युवक साधारण कुरता पाजामा पहने था। चेहरा बुझा था, जिसकी राख से चिंगारी निकली थी पत्थर फेंकते वक्त। शिक्षित था। बेकार था। नौकरी के लिए भटक रहा था। धंधा कोई नहीं। घर की हालत खराब। घर में अपमान। बाहर अवहेलना। वह आत्म ग्लानि से क्षुब्ध। घुटन और गुस्सा वाली नकारात्क भावना से लबालब। सबसे शिकायत। ऐसी मानसिकता में सुंदरता देखकर चिढ़ ही होती है। खिले फूल बुरे लगते हैं ...जिस भी चीज से, खुशी, सुंदरता, सम्पन्नता, सफलता, प्रतिष्ठा का बोध होता है, उस पर गुस्सा आता है।
स्कूल का लड़का अब मिडिल स्कूल में होता है तभी से बूढ़े-सयानों की शिकायत होने लगती है। वे कहते हैं – ये लड़के कैसे हो गए? हमारे जमाने में ऐसा नहीं था। हम पिता, गुरु, समाज के आदरणीयों की बात सिर झुकाकर मानते थे। अब ये लड़के बहस करते हैं। किसी को नहीं मानते...
ऊँची पढ़ाई वाले विश्वविद्यालय के छात्र सवेरे अखबार पढ़ते हैं, तो तमाम राजनीति और समाज के नेताओं के भ्रष्टाचार, पतनशीलता के किस्से पढ़ते हैं। अखबार देश को चलाने वालों और समाज के नियामकों के छल, कपट, प्रपंच, दुराचार की खबरों से भरे रहते हैं। धर्माचार्यों की चरित्रहीनता उजागर होती है। यही नेता अपने हर भाषण हर उपदेश में छात्रों से कहते हैं – युवकों, तुम्हें देश का निर्माण करना है (क्योंकि हमने नाश कर दिया है), तुम्हें चरित्रवान बनना है (क्योंकि हम तो चरित्रहीन हैं) और शिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं बल्कि नैतिक चरित्र को ग्रहण करना है (क्योंकि हमने शिक्षा और अशिक्षा से पैसा कमाना और अनैतिक होना ही तो सीखा)।
इन नेताओं पर छात्रों-युवकों की आस्था कैसे जमे? छात्र अपने प्रोफेसरों के बारे सब जानते हैं...बड़े लड़के अपने पिता को भी जानते हैं...
हमारे समय के लड़के-लड़कियों के लिए सूचना और जानकारी के इतने माध्यम खुले हैं कि वे सब क्षेत्रों में अपने बड़ों के बारे में सब कुछ जानते हैं। इसलिए युवाओं से ही नहीं बच्चों तक से पहले की तरह की अंध भक्ति और अंध आज्ञाकारिता की आशा नहीं की जा सकती।
हमारे यहाँ ज्ञानी ने बहुत पहले कहा था, “प्राप्तेषु षोडसे वर्षे पुत्र मित्र समाचरेत।”
उनसे बात की जा सकती है, उन्हें समझाया जा सकता है...
युवक-युवतियों के सामने आस्था का संकट है। सब बड़े उनके सामने नंगे हैं। आदर्शों, सिद्धांतों, नैतिकताओं की धज्जियाँ उड़ते वे देखते हैं। वे धूर्तता, अनैतिकता, बेईमानी, नीचता को अपने सामने सफल एवं सार्थक होते देखते हैं। मूल्यों का संकट भी उनके सामने है। सब तरफ मूल्यहीनता उन्हें दिखती है। बाजार से लेकर धर्मस्थल तक। वे किस पर आस्था जमाएँ और किसके पदचिह्नों पर चलें? किन मूल्यों को मानें?
यूरोप में दूसरे महायुद्ध के दौरान जो पीढ़ी पैदा हुई उसे ‘लॉस्ट जनरेशन’ (खोई हुई पीढ़ी) का कहा जाता है। युद्ध के दौरान अभाव, भुखमरी, शिक्षा, चिकित्सा की ठीक व्यवस्था नहीं थी। युद्ध में सभी बड़े लगे हैं, तो बच्चों की परवाह कौन करे। बच्चों के बाप और बड़े भाई युद्ध में मारे गए। घर का, संपत्ति का, रोजगार का नाश हुआ। जीवन मूल्यों का नाश हुआ। ऐसे में बिना उचित शिक्षा, संस्कार, भोजन, कपड़े के विनाश और मूल्यहीनता के बीच जो पीढ़ी जवान हुई, उसके पास निराशा, अंधकार, असुरक्षा, अभाव, मूल्यहीनता के सिवाय कुछ नहीं था। विश्वास टूट गए थे। यह पीढ़ी निराश, विध्वंसवादी, अराजक, उपद्रवी, नकारवादी बनती चली गई।
अंग्रेज लेखक जार्ज ओसबर्न ने इस क्रुद्ध पीढ़ी पर नाटक लिखा था जो बहुत पढ़ा गया और उस पर फिल्म भी बनी। नाटक का नाम ‘लुक बैक इन एंगर’। मगर यह सिलसिला यूरोप के फिर से व्यवस्थित और सम्पन्न होने पर भी चलता रहा। कुछ युवक समाज के ‘ड्रॉप आउट’ साबित हुए। ‘बीट जनरेशन’( थकी हुई पीढ़ी ) पैदा हुई...
दुनिया में जो क्रांतियां हुई हैं, सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, उनमें युवकों की बड़ी भूमिका रही है। मगर जो पीढ़ी ऊपर की पीढ़ी की पतनशीलता अपना ले, क्योंकि वह सुविधा की है और उसमें सुख है, वह पीढ़ी कोई परिवर्तन नहीं कर सकती।
ऐसे युवक हैं, जो क्रांतिकारिता का नाटक बहुत करते हैं, पर दहेज भरपूर लेते हैं। कारण बताते हैं- मैं तो दहेज को ठोकर मारता हूं, पर पिताजी के सामने झुकना पड़ा। यदि युवकों के पास दिशा हो, विचारधारा हो, संकल्पशीलता हो, संगठित संघर्ष हो तो वे परिवर्तन ला सकते हैं।
पर मैं देख रहा हूं एक नई पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दकियानूस हो गई है। यह शायद हताशा से उत्पन्न भाग्यवाद के कारण हुआ है। अपने पिता से अधिक तत्ववादी, बुनियादपरस्त (फंडामेंटलिस्ट) लड़का है।
दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है। इसका उपयोग खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं। यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।"
पढ़ लिया तो अब समझें और फिर ख़ुद संभलकर औरों को भी समझाएं कि भीड़ का रुख अगर आज उधर है तो कल इधर भी होगा। सच यही है कि आग अपने और पराए का भेद नहीं करती।
"आग का क्या है, पल दो पल में लगती है
बुझते- बुझते एक जमाना लग जाता है।"
---- प्रोफ़ेसर एच. आर. ईसराण

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