Wednesday 1 August 2018

कश्मीर-कलह पर भ्रांति निवारण

कश्मीर-कलह पर भ्रांति निवारण
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इस वक्त सोशल मीडिया पर जम्मू-कश्मीर को लेकर तथ्यविहीन बातों का अंधड़ सा चल रहा है! खासकर वहां की राजनीति, समाज, उसके भारत में सम्मिलन, संविधान के अनुच्छेद 370 और अलगाववाद के पैदा होने की वजह आदि जैसे विषयों पर! अज्ञानता के इस अंधड़ में कुछ अच्छे खासे शिक्षित लोगों को भी भ्रमित होकर भटकते देखा जा रहा है। हिंदी के ज्यादातर चैनल अज्ञानता के अंधड़ को और बढ़ा रहे हैं! उनके ज्यादातर एंकरों और वरिष्ठ पत्रकारों का कश्मीर-ज्ञान 'गूगल' या हिंदी अखबारों तक सीमित है। 
ऐसे में मेरा एक सुझाव है। इसे मित्र-गण अन्यथा नहीं लें! आपमें से ज्यादातर बहुत अच्छे प्रोफेशनल हैं! 
शिक्षक, पत्रकार, प्रोफेशनल्स और अन्य सभी शिक्षित मित्र-गण थोड़ा कष्ट करें। वैसे तो कश्मीर पर बहुत सारी किताबें बाजार में हैं। पर हिंदी में गिनी चुनी ही हैं। यहां अंग्रेजी और हिंदी की कुछेक किताबों की सूची दे रहा हूं, इनमें से किसी भी किताब को मंगाकर जरुर पढ़ें! इससे कश्मीर पर कम से कम तथ्यों की प्रमाणिक जानकारी मिल सकेगी। अज्ञानता और अफवाहों के अंधड़ से बचा जा सकेगा। सभी किताबें घर बैठे Amazon आदि से मंगाई जा सकती हैं।

किताबें:
1. Article 370: A constitutional history of Jammu and Kashmir by A G Noorani
2. Behind the Vale by M J Akbar
(जी, वही अकबर साहब, जो इन दिनों भाजपा के नेता और केंद्रीय राज्यमंत्री हैं!)
3. The lost rebellion by Manoj Joshi
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हिंदी में लिखी किताबें:
4. कश्मीरनामा: इतिहास और समकाल लेखक: अशोक कुमार पांडेय
5. कश्मीर: विरासत और सियासत: लेखक : उर्मिलेश
6. झेलम किनारे दहकते चिनार: लेखक : उर्मिलेश
अच्छी तरह दर्ज ( रिकॉर्डेड) इतिहास को लेकर भी सोशल मीडिया में बेवजह कुछ भ्रांतियां फैलने लगती हैं। कई बार इसके स्रोत होते हैं 'अपनी निजी इच्छा और मनचाहे एजेंडे से प्रेरित' इतिहास की प्रस्तुति करने वाले कुछ खास सोच के नेता-कार्यकर्ता!
इसी किस्म की एक भ्रांति है: संविधान का अनुच्छेद 370 के बारे में जनसंघ संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी के विचार! यही अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर को विशेष संवैधानिक दर्जा देता रहा है( बीते तीन-चार दशकों के दरम्यान जिसके दायरे को काफी संकुचित किया जा चुका है)!
सच ये है कि श्यामा बाबू ने संविधान सभा के सदस्य के रूप में संविधान के अनुच्छेद 370 का विरोध नहीं किया। सभा में इसका अनुमोदन किया था।
उन्होंने बाद के दिनों में विरोध करना शुरू किया। आरएसएस और जम्मू-कश्मीर के कुछ अमीर डोगरा और धनाढय पंडितों, जमींदारों व बड़े व्यापारियों ने इसके लिए उन्हें प्रभावित किया।
संघ-भाजपा के लोगों का यह कहना सच नहीं कि उन्होंने सिर्फ अनुच्छेद 370 के विरोध स्वरूप नेहरु कैबिनेट से इस्तीफा दिया था! आधुनिक इतिहास की इससे अनैतिक और असत्य व्याख्या या तथ्यों का विकृत निरुपण और क्या हो सकता है? नेहरू से उनकी नाराजगी के कई कारण रहे। पर इस्तीफे का मूल कारण बना: 'नेहरू लियाकत पैक्ट!' उन्होंने इसी मुद्दे पर इस्तीफा दिया था!
इन ठोस तथ्यों और इसके पक्ष में उपलब्ध तमाम साक्ष्यों के बावजूद झूठ का प्रचार कैसे और क्यों होता है? अपने राजनीतिक अभियान के दौरान वह गिरफ्तार कर लिये गए और सरहदी सूबे की जेल में रखे गए। (तबीयत खराब होने पर अस्पताल ले जाया गया) पर उन्हें बचाया नहीं जा सका। उनकी दुर्भाग्य वश मृत्यु हो गई। अपने जमाने के वह एक प्रखर हिंदूवादी नेता थे। आज के अनेक 'हिंदुत्वादी-मनुवादी नेताओं' की तरह वह अपढ़ नहीं थे। उनकी मृत्यु से उनके संगठन को गहरा धक्का लगा पर उनकी मृत्यु को हत्या बताना भी सही नहीं, जैसा कुछ लोग बताते हैं! विवाद उस वक्त भी उठाया गया पर साक्ष्यों की रोशनी में आरोप सही नहीं साबित हुए!
उक्त पोस्ट जाने-माने लेखक और प्रबुद्ध पत्रकार उर्मिलेश जी की वॉल से साभार ली गई हैं .
इसी संदर्भ में अब पढ़िए दूसरे ख्यातनाम पत्रकार व लेखक पंकज चतुर्वेदी जी की पोस्ट
आज ही के दिन श्याम प्रसाद मुखर्जी का निधन हुआ था। वे नेहरूजी की पहली केबिनेट में मंत्री थे। फिर इस्तीफा दे कर जनसंघ के स्थापनाकर्ता बने। उससे पहले भी वे कांग्रेस छोड़ कर हिन्दू महा सभा में जा चुके थे। वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष भी बने।
श्री महेश राठी एक वेब साईट पर लिखते हैं..
श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जीवन और उनके कृत्यों का विश्लेषण करें तो वह ना केवल अंग्रेजों की तरफ झुकाव वाला बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की राह में गतिरोध खडा करने वाला दिखाई देता है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भी जिन्ना की तरह अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत कांग्रेस से की थी। वह कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर पहली बार बंगाल प्रांतीय परिषद के सदस्य चुने गये थे। उसके बाद वह आगे चलकर 1939 में सावरकर के प्रभाव में आकर हिंदू महासभा के साथ जुड गये। श्यामा प्रसाद मुखर्जी और सावरकर को भाजपा और संघ के नेता महान राष्ट्रवादी नेता के तौर पर पेश करते हैं। परंतु यदि भारतीय स्वतंत्रता संगाम में उनकी भूमिका को देखें तो किसी भी तरह से जिन्ना से कम विवादास्पद नही थी बल्कि कईं अर्थों में वह जिन्ना से भी विवादास्पद और अंग्रेज परस्ती की दिखाई पड़ती है। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का उन्होंने जमकर विरोध किया यहां तक बंगाल के गवर्नर जाॅन हरबर्ट को 26 जुलाई 1942 को एक पत्र लिखा और उसमें गांधी और कांग्रेस के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करते हुए उसे विफल बनाने के लिए भरपूर सहयोग देने का वादा भी किया था। उन्होंने अपने पत्र में साफ लिखा था कि आपके मंत्री हाने के नाते हम भारत छोड़ों आंदोलन को विफल करने के लिए पूरा सक्रिय सहयोग करेंगे।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी केवल इतने पर ही नही ठहरे बल्कि जब गांधी और कांग्रेस 'करो या मरो' के नारे के तहत अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन चला रहे थे उस समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी सावरकर के साथ मिलकर अंग्रेजों का सहयोग कर रहे थे। कांग्रेस और गांधी ने अंग्रेजों द्वारा भारत को दूसरे विश्व युद्ध में शामिल करने की घोषणा का विरोध किया तो वहीं सावरकर पूरे भारत में घूमकर अंग्रेजी फौज में भारतीयों को भर्ती होने के लिए प्रेरित कर रहे थे। जाहिर है बंगाल के वित्तमंत्री और भाजपा और संघ के आदर्श नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी इसमें शामिल थे। वास्तव में श्यामा प्रसाद मुखर्जी का भारत छोड़ों आंदोलन के विरोध का कारण सावरकर द्वारा सभी हिंदू महासभा सदस्यों को लिखे गये पत्र का जवाब था जिसमें उन्होंने गांधी द्वारा पद त्याग का विरोध करते हुए लिखा था कि अपने पद पर बने रहो। सावरकार का यह प्रसिद्ध पत्र “स्टिक टू दि पोस्ट” नाम से मशहूर है।
इस से भी शर्मनाक स्थिति वह थी कि जब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस देश को आजाद करवाने के लिए आजाद हिंद फौज के साथ जान की बाजी लगा रहे थे तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी मुस्लिम लीग के नेतृत्व में बंगाल में बनी सरकार के उप प्रधानमंत्री (उप मुख्यमंत्री) थे। वहीं दूसरी तरफ नेताजी देश को नारा दे रहे थे कि तुम मुझे खुन दो और मैं तुम्हे आजादी दूंगा तो दूसरी तरफ मुस्लिम लीग और संघ-हिंदू महासभा मिलकर ब्रिटिश फौज के लिए भर्ती कैंप चला रहे थे।
इसके अलावा जिन्ना, सावरकर और श्यामा प्रसाद की दोस्ती और सहयोग का सबसे अनौखा उदाहरण 1939 में दिखाई देता है। अंग्रेजों द्वारा भारत को दूसरे विश्व युद्ध में शामिल करने की घोषणा पर 1939 में गांधी के आहवान पर कांग्रेस के विधायकों ओर मन्त्रियों ने अंतरिम सरकार के अपने पदों से इस्तीफा दे दिया तो जिन्ना ने इस पर खुशी जाहिर करते हुए इसे मुक्ति का दिन बताया और इस मुक्ति के दिन में मुखर्जी ने मंत्री पद छोडने की अपेक्षा कांग्रेस छोड़कर जिन्ना की खुशी में शामिल होकर मुस्लिम लीग सरकार में साझेदारी करना बेहतर माना था। ध्यान रहे कि जहां श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस मुक्ति के दिन का समारोह मनाते हुए मुस्लिम लीग सरकार में शामिल हो रहे थे तो वहीं अब्दुर रहमान सिदद्की नामक एक ऐसे लीगी मुस्लिम नेता भी थे जिन्होंने जिन्ना की घोषण का विरोध करते हुए लीग की वर्किंग कमेटी से इस्तीफा दे दिया था और जिन्ना की घोषणा को राष्ट्रीय गरिमा का अपमान और अंग्रेजों की चाकरी बताया था। परंतु राष्ट्रवादी नेता मुखर्जी और सावरकर को इसी चाकरी में राष्ट्रवाद दिखाई पड़ रहा था।
उन दिनों कश्मीर जाने के लिए परमिट प्राप्त करना जरूरी था। 11 मई, 1953 को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को जम्मू-कश्मीर में बिना परमिट के आते हुए हिरासत में ले लिया गया था। 23 जून, 1953 को हिरासत में उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई थी। उन्होंने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने का विरोध किया था और कहा था कि एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान नहीं चलेंगे।
श्री मुखर्जी सांस की तकलीफ के मरीज थे। कश्मीर के मौसम में उनकी तबियत बिगड़ गयी। उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया। कहते हैं कि उस समय उपलब्ध एकमात्र एन्टीबायोटिक पेनिसिलिन से उन्हें एलर्जी थी। किसी डॉक्टर ने लापरवाही में यह इंजेक्शन दे दिया। उनकी हालत बिगड़ती गयी और अस्पताल में उनका निधन हो गया।
हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु के बाद उनकी मां योगमाया के एक पत्र के जवाब में कहा था कि 'मैं इस सच्चे और स्पष्ट निर्णय पर पहुंचा हूं कि इस घटना में कोई रहस्य नहीं है।

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