Wednesday 1 August 2018

जाति की ज़ाहिल जकड़न.....

जाति की ज़ाहिल जकड़न                
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जाति है कि लाख जतन करने पर भी भारतीय समाज से जाती नहीं। व्यक्ति चाहे उच्चतम पद पर आसीन हो जाए, उसकी पहचान और ख़ास जगहों पर उसके प्रति सलूक उसकी जाति के हिसाब से ही होता है।
समाज को दिमागी रूप से गुलाम बनाने की साजिश के तहत जाति व्यवस्था ( Caste system ) का जटिल व कुटिल जंजाल रचा गया था। सदियों पुरानी व्यवस्था है यह। भारतीय समाज की एक अत्यंत उत्पीड़नकारी, शोषणकारी घृणित व्यवस्था।
जिस चीज ने भारतीय समाज को भीतर से संवेदनहीन, न्यायपूर्ण चेतना से रहित और अमानवीय बना दिया, वह है, जाति- व्यवस्था। जाति-व्यवस्था पर टिका समाज हमें रोज- ब- रोज अतार्किक, विवेकहीन, कायर, पाखण्डी और ढोंगी बनाता है तथा व्यक्ति के आत्मगौरव और मानवीय गरिमा को क्षरित करता है। जाति- व्यवस्था ने एक ऐसा श्रेणी-क्रम रचा, जिसमें हर जाति किसी दूसरी जाति की तुलना में नीच है। इसने श्रम न करने वाले परजीवियों को श्रेष्ठ तथा शारीरिक श्रम करने वालों को नीच तथा महानीच बना दिया। उत्पादन तथा सेवा करने वालों को शूद्र तथा अन्त्यज कह कर घृणा, उपेक्षा, अपमान, तिरस्कार का पात्र बना दिया गया, यहां तक कि उनमें से बड़े हिस्से को अछूत घोषित कर कर दिया गया। मनुष्य जाति के इतिहस में मानव को अछूत घोषित कने की शायद यह एक मात्र व्यवस्था है।

देश में इतने सारे सामाजिक परिवर्तन हुए, मगर यह व्यवस्था जस की तस है। विगत दशक से तो जात- पात की डफ़ली-मंजीरे जोर- शोर से बजाने का प्रचलन परवान पर है। जातियों की अपनी 'सेनाओं' का गठन व संचालन अपने आप में अभूतपूर्व है।
जो भी विदेशी शासक भारत आये, उन्होंने यहाँ कि जाति- व्यवस्था को स्वीकार किया, उसको बदला नहीं। जातियां बनी रहीं, जातियो के अंदर भी उप जातियां पनपती रहीं, जिसमें ऊंच- नीच का फर्क किया गया । हमारी व्यवस्था ने इसको इतना मजबूत कर दिया कि हमारे नाम के साथ, लिखना शुरू करवा दिया। ये हमारे जन्म- मरण के साथ जोड़ दिया गया है। हमारे दिमाग में इसका जहर कूट- कूट के भर दिया गया है। जाति व्यवस्था ने हमें मानसिक रूप से गुलाम कर दिया, हमने इस गुलामी को स्वीकार कर लिया।
जाति -प्रथा को अतीत में कम से कम दो बार गंभीर चुनौती मिली है। पहला दौर था जैन और बौद्ध धर्मों के फ़ैलने का। लेकिन जैन धर्म एक खास जाति तक सीमित हो कर रह गया और बौद्ध धर्म को एक साज़िश के तहत भारत में टिकने नहीं दिया ।
जाति-प्रथा को दूसरा आघात देने की कोशिश की भक्ति आंदोलन ने। लेकिन यह मुख्यत: उन जातियों का आंदोलन था, जिन्हें समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था। जाति की उनकी आलोचना वस्तुत: उनकी निजी और सामाजिक पीड़ा का ही चीत्कार था। इस चीत्कार को सवर्ण चित्त ने सुना जरूर, लेकिन इससे व्यवस्था के ढाँचे में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ।
मसलन कबीर ने जात-पात के खोखलेपन को उज़ागर करते हुए कहा:
" कबीरा कुँआ एक है, पानी भरें अनेक।
बर्तन में ही भेद है, पानी सब में एक ।।"
गुरु नानक ने भी ऊंच- नीच के भेदभाव की निरर्थकता को उज़ागर करते हुए यह कहा:
" अव्वल अल्लाह नूर उपाया, क़ुदरत दे सब बंदे।
एक नूर ते सब जग उपज्या, कौन भले कौन मंदे।।
जातीय शोषण झेलते हुए आए इन संतो/कवियों ने आडंबरों को धता बताते हुए निराकार ईश्वर की आराधना पर जोर दिया। मंदिर- प्रवेश पर पाबंदी को उन्होंने यह कहकर चुनौती दी कि ईश्वर मंदिर- मस्जिद में नहीं मनुष्य के हृदय में वास करता है।
भक्ति आंदोलन से निकले हुए ये संत बाद में स्वयं भिन्न-भिन्न जातियों की संपत्ति हो गए और उनके प्रगतिशील संदेश को क्रमश: भुला दिया गया। कबीर और रैदास अपनी सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना में एक थे, पर उनके शिष्यों के बीच तरह-तरह की दूरियाँ बनी रहीं।
जाति-व्यवस्था की खुली ख़िलाफ़त
जाति के पेचीदा प्रश्न व 'जाति' की जड़ और ज़द की बात हो तो महात्मा ज्योतिबा फुले, पेरियार, डॉ भीमराव आंबेडकर और डॉ राममनोहर लोहिया की बातों को इस बात में शामिल किए बिना बात सी बात नहीं बनती।
ज्योतिराव फुले जाति, पंथ, धर्म, सम्प्रदाय, लिंग, भाषा, क्षेत्र आदि के आधार पर होने वाले भेदभाव के प्रबल विरोधी थे। ज्योतिबा ने वर्ण व्यवस्था और जातिगत व्यवस्था की ख़िलाफ़त करते हुए कहा: "ये दोनों शोषण की व्यवस्था हैं, और जब तक इसका पूरी तरह खात्मा नहीं हो जाता, तब तक एक अच्छे समाज की निर्मिति असंभव है।" फुले ऐसे पहले भारतीय थे ,जिन्होंने इस प्रकार के विचार सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने की हिम्मत की। जाति- व्यवस्था निर्मूलन की कल्पना कर उसे साकार करने हेतु आंदोलन का मार्ग प्रशस्त करने का श्रेय फुले को जाता है।
दक्षिण में नव विचारों की जन क्रांति के नायक पेरियार ई.वी. रामास्वामी नायकर का यह कथन क़ाबिल-ए-गौर है: "जब तक भारतीय समाज में जातियों का पदक्रम बना रहेगा, तब तक यह संभावना भी रहेगी कि इस पदक्रम की हर सीढ़ी पर खड़ी जाति अपने से नीची सीढ़ी की जाति का दमन करने का प्रयास करेगी।"
पेरियार ने पाखंड और प्रपंच पर करारी चोट करते हुए दो टूक शब्दों में यह कहा कि आज विदेशी लोग दूसरे ग्रहों पर संदेश और अंतरिक्ष यान भेज रहे हैं। हम बिचौलियों द्वारा श्राद्धों में परलोक में बसे अपने पूर्वजों को चावल और खीर भेज रहे हैं। क्या यह बुद्धिमानी है?
’जाति’ को डॉ0 लोहिया ने एक ’जड़ वर्ग’ के रूप में परिभाषित किया है। वस्तुतः जाति को जकड़न का दूसरा नाम माना जा सकता है। इसी जाति-पाश के कारण भारत का जीवन निष्प्राण- सा हो गया है। यहां का व्यक्ति पहले हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई, जैन, पारसी, आदि के नाम पर विभाजित है, फिर जातियों और उपजातियों के नाम पर। देश का हिन्दू (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के साथ-साथ) असंख्य उपजातियों में विभाजित है। जातीय जकड़न एकता की दुश्मन होती है। जाति-प्रथा के मामले में डॉ लोहिया का मत ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि देश की जनता पर जाति-प्रथा थोपने वाले लोगों ने ऐसी व्यवस्था निर्मित की जिसमें ब्राह्मण को मस्तिष्क का स्वामी और वैश्य को धन का मालिक बनाकर युद्ध और सेवा का दायित्व क्रमशः क्षत्रिय और शूद्र पर लाद दिया गया। यही कार्य- विभाजन ऊंच-नीच, छोटे-बडे़, शासक-शासित के गैर समाजवादी भाव के परिणाम के रूप में सामने आया।
डॉ0 लोहिया ने भारत की हजार वर्षीय गुलामी का कारण आंतरिक कलह और छल-कपट को नहीं बल्कि जाति को माना है। डॉ0 लोहिया के दिमाग़ में जाति- प्रथा के विरूद्ध एक सशक्त तूूफान आजीवन उमड़ता रहा। उन्होने जाति-प्रथा पर चौतरफा प्रहार किया। कठोपनिषद् के एक मंत्र ’’एकस्तथा सर्व भूतांतरात्मा। रूपं-रूपं प्रति रूपो बभूव’’ को ब्रह्ज्ञान का मूल आधार बताते हुए उन्होंने मूल रूप से सबको एक बताया है। 27 मई 1960 को हैदराबाद में आर्यसमाज की एक सभा में अपने उद्बोधन में डॉ0 लोहिया ने कहा कि अपने व्यक्तिगत संकुचित शरीर और मन से हटकर सबके प्रति अपनेपन का अनुभव करना ही सच्चा ब्रह्ज्ञान है।
जाति-प्रथा से कालांतर में घातक जातिवाद उदित हुआ। डॉ लोहिया ने स्पष्ट किया कि इसी प्रथा के चलते छोटी जातियां सार्वजनिक जीवन से बहिष्कृत की जाती हैं। जिससे दासता उत्पन्न होती है। जो शोषण की जननी है। भेद-भाव को जन्म देकर समाज को विघटित करने वाली जाति-प्रथा आत्मीयता और सौहार्द समाप्त कर देती है, और सामाजिकता का लोप हो जाता है।
जाति का पिशाच
भारतीय परम्परावादी समाज में व्यक्ति स्थान या धर्म परिवर्तन करके भी decaste ( निर्ज़ात / जातिमुक्त/ बिना जाति का ) नहीं हो सकता। जाति का टैग उसके साथ जीवनपर्यंत चिपका रहता है। हम आधुनिक व उत्तरआधुनिक जरूर हो रहे हैं पर decaste नहीं। यह एक भयावह त्रासदी है।
सुभाष गताड़े अपने लेख 'Cast Away Caste: Breakinng New Grounds' की शुरुआत डॉ आंबेडकर के इन दो उद्धरणों से करते हैं:
'Turn in any direction you like, caste is the monster that crosses your path. You cannot have political reform, you cannot have economic reforms unless you kill the monster.'
( From "Annihilation of Caste" , 1936 )
आप चाहे जिस राह/ दिशा में चले जाइए, जाति का पिशाच हर राह पर आपका रास्ता रोके खड़ा मिलेगा। जब तक आप इस पिशाच को मौत के घाट नहीं उतारेंगे, तब तक आप न तो राजनीतिक सुधार ला सकते, न ही आप आर्थिक सुधार ला सकते।
'If Lenin was born in India , he would not have even let the idea of revolution come to his mind before he had completely buried casteism and untouchability'
अगर लेनिन का जन्म भारत में होता तो वह जातिवाद और अश्पृश्यता का पूरी तरह खात्मा करने से पहले अपने दिमाग मे क्रांति के विचार को कौंधने नहीं देता।
जैसे कार्ल मार्क्स ने वर्गविहीन समाज की अवधारणा दी थी, इसी तरह डॉ भीमराव आंबेडकर ने भी जातिविहीन समाज का सपना देखा था। डॉ आम्बेडकर ने भारतीय समाज में चतुर्वर्ण -व्यवस्था , जाति-प्रथा तथा अस्पृश्यता को अवैज्ञानिक, अमानवीय, अन्यायपूर्ण, अत्याचारपूर्ण, शोषणकारी सामाजिक षडयंत्र करार देते हुए इनकी कटु आलोचना की। यह व्यवस्था श्रम के विभाजन पर आधारित न होकर श्रमिकों के विभाजन पर अवलंबित थी। जातीय आधार पर व्यक्तियों के कार्यों का जन्म से ही निर्धारण हो जाता है। इसमें व्यक्ति की खुद की काबिलियत औऱ उसका प्रशिक्षण महत्त्वहीन हो जाता है। इस व्यवस्था से सामाजिक जड़ता ( social stability ) पुख़्ता होती है, क्योंकि कोई व्यक्ति अपनी जाति का स्वेच्छा से परिवर्तन नहीं कर सकता। फलत: यह व्यवस्था संकीर्ण प्रवृत्तियों को जन्म देती है, क्योंकि हर व्यक्ति अपनी जाति के अस्तित्व के लिए अधिक जागरूक होता है। इसका नतीजा यह निकलता है कि विभिन्न जातियों के लोगों में राष्ट्रीयता का संचार नहीं हो पाता। जातीय विद्वेष और घृणा का प्रसार इस व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी है।
उपर्युक्त तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए हमारे संविधान की प्रस्तावना ‘हम भारत के लोग’ शब्दों से की गई है। इसकी व्याख्या करते हुए डॉ आंबेडकर ने अपने भाषण में कहा था:
“मेरा विचार है कि ‘हम एक राष्ट्र हैं’, ऐसा मानकर हम एक बड़े भ्रम को बढ़ावा दे रहे हैं। हजारों जातियों में बंटे लोग भला एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं? सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हम अभी तक एक राष्ट्र नहीं हैं। इस बात को हम जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही हमारे लिए बेहतर होगा। तभी हम राष्ट्र बनने की जरूरत को बेहतर समझ पाएंगे। ( जाति प्रथा के रहते ) इस उद्देश्य की प्राप्ति कठिन है… जातियां राष्ट्र– विरोधी हैं। पहला कारण तो यह कि वे सामाजिक जीवन में अलगाव को बढ़ावा देती हैं। दूसरे, वे एक जाति और दूसरी जाति के बीच ईर्ष्या और असहिष्णुता को ले आती हैं।
जाति के साथ एक बात और भी जुड़ी हुई है , जिसका उल्लेख करते हुए डॉ आंबेडकर Annihilation of Caste में लिखते हैं:
"Each caste takes its pride and its consolation in the fact that in the scale of castes it is above some other caste."
हर जाति इस बात पर अभिमान करती है और अपने को तस्सली देती है कि जातियों के मापक्रम में वह किसी दूसरी जाति से ऊपर है।
जातीय श्रेष्ठता का दंभ और जातीय नीचता की कुंठा लोगों में आत्मसम्मान की भावना को नष्ट कर देती है, उनकी चेतना को कुंद कर देती है, संवेदना को मार देती है,स्वंय को तथा दूसरे को सिर्फ इंसान समझने की संवेदना को कुचल देती है। उसे आदमी नहीं जाति विशेष के प्रतिनिधि कठपुतली में तब्दील कर देती है। डॉ आंबेडकर अपनी पुस्तक 'जाति का विनाश'लिखते हैं कि “इसमें कोई संदेह नहीं कि जाति आधारभूत रूप से हिंदुओं का प्राण है लेकिन इसने सारा वातावरण गंदा कर दिया है और सिख, मुस्लिम और क्रिश्चियन सभी इससे पीडित हैं”।
डॉ आंबेडकर दो टूक शब्दों में कहते है कि “ हिंदू जिसे धर्म कहते हैं, वह कुछ और नहीं, आदर्शों और प्रतिबन्धों का जमघट है। हिंदू धर्म वेदों व स्मृतियों , यज्ञ – कर्म , सामाजिक शिष्टाचार, राजनीतिक व्यवहार तथा शुद्धता के नियमों जैसे अनेक विषयों का खिचड़ी-संग्रह मात्र है और वास्तविक धर्म, जिसमें आध्यात्मिकता के सिद्धान्तों का विवेचन हो,जो वास्तव में सर्वजनीन और विश्व में सभी समुदायों के हर काम में उपयोगी हो, हिंदुओं में पाया ही नहीं जाता और यदि कुछ थोड़े से सिद्धांत पाए भी जाते हैं तो हिंदुओं के जीवन में उनकी कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं पायी जाती”।
वस्तुतः जाति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इन्हें उखाड़ फेंकना आसान नहीं है। जाति व्यवस्था वर्चस्व की लड़ाई है। चातुरवर्ण उसका आधार है। दरअसल जाति व्यवस्था को कुछ इस तरह से निर्धारित किया गया है कि यह हमारे मस्तिष्क में ‘by default’ है और स्वतः रिसाईकिल( Recycle ) और रिचार्ज ( Recharge ) होती रहती है।
जाति के जंजाल से निज़ात के उपाय
अगर हम सच में राष्ट्र बनना चाहते हैं तो हमें जातीयता के तंग दायरों से मुक्ति पानी होगी। डॉ0 लोहिया ने जातिवाद को दूर करने के लिए दो उपाय सुझाए। सहभोज और अन्तर्जातीय विवाह। इन दोनों उपायों को वे कानूनी जामा पहनाना चाहते थे। इन दोनों शर्तो से इन्कार करने वाले को नौकरी व अन्य सेवाओं के लिए अयोग्य घोषित किये जाने के पक्षधर रहे। डॉ आंबेडकर के अनुसार जब तक जातियों के बाहर शादी -ब्याह की स्थितियां पैदा नहीं होती तब तक जाति का इस्पाती साँचा तोड़ा नहीं जा सकता।
जाति से मुक्ति का रास्ता इंगित करते हुए जाने- माने लेखक ओमप्रकाश कश्यप अपने लेख "जाति: आख़िर क्यों नहीं जाती?" में लिखते हैं कि बंटा हुआ समाज स्वयं एक बीमारी है। इसलिए जाति, वर्ग, पूंजी, धर्म, संस्कृति आदि समाज को बांटने वाले सभी कारकों को मनुष्यता की कसौटी पर कसा जाना चाहिए और जो भी मनुष्यों को आपस में भेद करना सिखाता है, उसका अविलंब बहिष्कार किया जाना चाहिए।
जाति का मूल स्वरूप सामंतवादी होता है। उसकी एकमात्र काट सच्चे लोकतंत्र में है ,जिसमें शासन व्यक्तियों का नहीं अपितु कानून का होता है। जाति से मुक्ति का एकमात्र रास्ता यही है कि आभासी लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र/ क़ानून का शासन ( Rule of Law ) में बदला जाए। छोटे–छोटे जाति–समूहों का उनके समान हितों के आधार पर एकीकरण करते हुए वर्ग में बदला जाए। नागरिकों को नागरीकरण के जरिये इस तरह जोड़ा जाए कि नागरिक अपनी निजी/जाति/ धर्म के बजाय सामूहिक पहचान को वरीयता देने लगें। यहां निजी पहचान से ध्यान हटाने का अभिप्राय अपने व्यक्तित्व को विलीन कर देना नहीं है। लोकतंत्र जनताकरण ( व्यक्तियों का जाति-धर्म के दायरों से मुक्त होकर खुद को जनता के विशाल समुदाय में सम्मिलित मानना ) की सतत प्रक्रिया है। उसमें लोग एक साथ घुलमिलकर सामूहिक बड़े हितों की पहचान करते हैं। बाहरी पहचान जिससे उनके व्यक्तित्व, उत्पादकता या बुद्धि–विवेक का सीधा संबंध न हो, को बिसरा देते हैं। फलस्वरूप नागरिकों की पहचान उसकी योग्यता, ज्ञानानुभव, कार्यक्षमता और मनुष्यता के प्रति समर्पण भाव से होने लगती है। ऐसे ही लोग लोकतंत्र में अपने सच्चे प्रतिनिधि चुनने में सफल हो सकते हैं। उस समय वे जो प्रतिनिधि चुनते हैं, वे केवल प्रतिनिधित्व करते हैं, शासक बनने का साहस नहीं कर पाते। वस्तुतः जाति–उन्मूलन का सही रास्ता समाज के लोकतांत्रिकरण में है।
लगता है कि भारत में जाति- प्रथा ने स्थायित्व का अमृत पी रखा है। इसका कारण हम भारतीयों ने आधुनिक विचार कम, आधुनिक जीवन-पद्धति ज्यादा आत्मसात की है। आधुनिक विचार की विफलता का सर्वाधिक रोचक दृश्य हमारे यहाँ 21 सितंबर 1995 को देखने को मिला, जब टेलीफोन के सहारे फैलाई गई एक अफ़वाह मात्र से देश के एक बड़े हिस्से में शंकर-सुत गणेश की मूर्तियों को टनों दूध 'पिला' दिया।
बेशक आधुनिक विचार का ज्यादातर असर ख़ास लोगों के निजी जीवन में हुआ है परंतु यह किसी सामाजिक आंदोलन की शक्ल नहीं ले सका है। इस मामले में भारत के मध्य वर्ग ने काफी निराश किया है। यूरोप के मध्य वर्ग ने अनेक सामंती मूल्यों से विद्रोह कर प्रगतिशील काम किया था, किंतु भारत के मध्य वर्ग ने अधिकांशतः सामंती मूल्यों को संरक्षण दिया है।
भारत में जाति के ज़हर के दुष्प्रभाव से प्रलाप की अवस्था में गिरफ्त हो चुकी जातियाँ अपनी-अपनी जाति के अपराधियों व भ्र्ष्ट नेताओं को अपना तारणहार व गौरव समझ कर उनको हीरो का दर्ज़ा दे चुकी हैं। सत्ता का रास्ता छल-बल-कपट से होकर गुजरने लगा है। जातिवाद को चुनाव में अलोकतांत्रिक तरीकों से वोट जुगाड़ना माना जाता था, वही शुद्ध जातिवाद अब 'सोशल इंजीनियरिंग' के नाम से लोकलुभावन होकर स्वघोषित 'राष्ट्रवादी पार्टी' की आँखों का तारा बन चुका है। ज़हर वही है, आधुनिक शब्दावली की तश्तरी में सजाकर खुले-आम धर्म व राष्ट्रवाद की अफ़ीम के साथ मिलाकर फ़्री में युवापीढ़ी को चटाया जा रहा है।वर्तमान सत्ताधारी पार्टी के लिए हिंदू एकता राजनैतिक मुद्दा है—सामाजिक मुद्दा नहीं। सामाजिक स्तर पर तो विभाजित हिंदू समाज ही उसे स्वीकार्य है।
जाति एक सामाजिक परिघटना ( Caste as a social phenomenon)
जाति के ज़हर के बारे में उक्त विवेचन पढ़ने के बाद अब पढ़िए वैचारिक रूप से समृद्ध पूर्व आई. सी. एस. अधिकारी प्रदीप कासनी की नेक नसीहत। साझा कर रहा हूँ। बात दिल को छूने वाली। वक़्त की ज़रूरत के अनुरूप। राजनीतिमत्ता ( Statesmanship ) को बख़ूबी परिलक्षित करने वाली सधे शब्दों में बंधी उनकी बात का संशोधित स्वरूप में सारांश प्रस्तुत है।
जाति ... हमारे समाज का एक यथार्थ है। कड़वा सच है ...ऐतिहासिक अतीत का एक ठोस अवशेष। निष्कपट भाव से अनजान लोग भी आपसे आप की जात पूछ लेते हैं और आप बता भी देते हैं। चलता है। चल ही रहा है। परन्तु जाति से अलग, ये जो जातिवाद है , यह कैंसर की तरह समाज को निष्प्राण कर रहा है।
...परन्तु जातिवाद की भावना, जातिवादी रुख़, जातिवादी गर्रा, जातिवादी मिथ्याभिमान, जातिवादी संकीर्णताएँ और मार्गावरोध तो जीवन से जितना जल्दी जायें, उतना ही अच्छा हो।
पैदाइशी जाति भी नहीं होती। नवजात शिशु को 'जाति' उसकी पैदाइश के बाद समाज का एक प्रदान है। वह चुनता नहीं है, उस पर लद जाता है। चिपक जाता है। यहाँ तक ग़नीमत है, परन्तु जब आपको आपकी सोच, आपके सारे शिक्षा-संस्कार सहित, आपकी समूची अनुभवसम्पदा के साथ, आपकी जाति-पहचान में घटाया जाता है, तो मामला एक साथ पेचीदा और कारुणिक बना दिया जाता है।
कारुणिक इसलिये कि आपका समग्र व्यक्तित्व, आपकी सारी निजी ख़ासियतों और ख़ूबसूरतियों को उससे ख़त्म कर देते हैं। जबकि हमारे समाज में एक-एक शख़्स के पास अपनी-अपनी निजी ख़ासियतों और ख़ूबसूरतियों की एक बहार हो।
पेचीदा इस तरह कि फिर ऐरी-ग़ैरी ताक़तें और समाजदुश्मन अंशर -- वे चुनावी राजनीति के ज़रिए राजनीति में हैं भी बहुत -- हमारा इस्तेमाल एक ग़ैर-इन्सानी पुर्जे की तरह करने को लालायित होते हैं और हम उनका शिकार होने लगते हैं और जिस अनुपात में यह घटित होता है उसी स्केल पर समाज में बदअमनी, आपसी मारामारी और दुर्भाग्यपूर्ण सत्यानाश का बीजवपन होने लगता है...
तो, फिर क्या करें ?
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तो, संक्षेप में, आदमी अच्छा लगे तो आगे बढ़कर हाथ मिलाइये। उसकी जात मत पूछिये। ख़ामख़्वाह, और बिना प्रसंग, अपनी (जाति) बताते रहना भी आपके लिये क़तई ज़रूरी नहीं ...आप घर से बाहर आयें हों और बस एक इन्सान और अपनी सजी-धजी इन्सानियत के साथ ख़ुद को पेश कर रहे हों तब दूसरे आपकी जाति नहीं आपके गुणों-ख़ासियतों, आपकी क्षमता- कौशल और क़ाबिलियत, आपकी शख़्सियत पर ज़्यादा आयेंगे...बशर्ते वे इंसानियत को तवज्जो देते हों।
सहकार से समाज बनता है। सद्भावनापूर्ण सहकार उसको आगे ले जाता है और हमारी रोटी-रोज़ी को भी आसान बनाता है। जातिवादी कटुताएँ और अतियाँ इस सद्-भावना की जड़ों पर कुठार चलाने और चलवाने में सबसे ज़्यादा रास आती हैं।
इनकी काट है निजगत आत्मसंस्कार के स्तर पर : एक सहज इंसानियत को साध लेना।
हाथ से हाथ मिलाये रखें।"
---- प्रस्तुति : प्रो. हनुमाना राम ईसराण
पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

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